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________________ ग्रन्थ में मानतुंग को हर्ष का समकालीन माना है। श्रीहर्ष का राज्याभिषेक ई.सन् 606 (वि.सं.663) में हुआ। ___ भक्तामर स्तोत्र के प्रारम्भ करने की शैली पुष्पदंत के शिवमहिम्न स्तोत्र से प्रायः मिलती है। प्रातिहार्य एवं वैभव वर्णन में भक्तामर पर पात्र केसरी स्तोत्र का भी प्रभाव परिलक्षित होता है। अतएव मानतुंग का समय 7वीं सदी है। यह सदी मयूर, बाणभट्ट आदि के चमत्कारी स्तोत्रों की रचना के लिये प्रसिद्ध भी है। __ भारत का इतिहास इस बात का साक्षी है कि ईस्वी सन् 5वीं शताब्दी में मंत्र तंत्र का प्रचार विशेष रूप से हुआ है। 5वीं शताब्दी में महायान और कापालिकों ने बड़े-बड़े चमत्कार की बातें कहना आरम्भ की। अतएव यह क्लिष्ट कल्पना न होगी कि उस चमत्कार के युग में आचार्य मानतुंग ने भी भक्तामर स्तोत्र की रचना की हो। अतएव मानतुंग का समय 7वीं शताब्दी उत्तरार्ध है। (10) जिनसेन : आचार्य जिनसेन पुनाट सम्प्रदाय आचार्य परम्परा में हुए। पुनाट कर्नाटक का ही पुराना नाम है, जिसको हरिषेण ने दक्षिणापथ नाम दिया है। ये जिनसेन आदिपुराण के कर्ता श्रावक धर्म के अनुयायी एवं पंचस्तुपान्वय के जिनसेन से भिन्न थे। ये कीर्तिषेण के शिष्य थे। जिनसेन का हरिवंश इतिहास प्रधान चरित काव्य श्रेणी का ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की रचना वर्धमानपुर (धार जिले का बदनावर) में हुई थी। इसका रचना काल लगभग नवम् शताब्दी के मध्य बैठता है। दिगम्बरीय सम्प्रदाय के संस्कृत कथासंग्रहों में इसका तीसरा स्थान है। (11) हरिषेण : पुनाट संघ के अनुयायियों में एक दूसरे आचार्य हरिषेण हुए। इनकी गुरु परम्परा मौनी भट्टारक श्री हरिषेण, भरतसेन, हरिषेण इस प्रकार बनती है। कथाकोश की रचना. इन्होंने वर्धमानपुर या बढ़वाण (धार जिले का बदनावर) में विनायकपाल राजा के राज्यकाल में की। विनायकपाल प्रतिहार वंश का राजा था, जिसकी राजधानी कन्नौज थी। इसका एक 988 वि. का दानपत्र मिला है। इसके एक. वर्ष बाद अर्थात् 989 वि. (853 शक सं.) में कथाकोश की रचना हुई। हरिषेण का कथाकोश साढ़े बारह हजार श्लोक परिमाण का वृहद ग्रन्थ है। (12) आचार्य देवसेन : आचार्य वसुनंदि के सम्बन्ध में ऐतिहासिक दृष्टि से कुछ विवाद है। कुछ विद्वानों के मत से भावसंग्रह के रचयिता विमलसेनगणि के शिष्य देवसेन 'लघुनयचक्र' के रचयिता देवसेन से भिन्न थे और उन्होंने उक्त ग्रन्थ के अतिरिक्त 'सुलोचणाचरित' नामक एक अपभ्रंश ग्रन्थ भी लिखा, किन्तु इन दो देवसेन व्यक्तियों के संबंध में जब तक प्रामाणिक सामग्री नहीं मिलती है तब तक [[1431 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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