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________________ सभी श्वेताम्बर दिगम्बर विद्वानों ने लिया है। सिद्धसेन ही जैन परम्परा का आद्य संस्कृत स्तुतिकार है। श्री बृजकिशोर चतुर्वेदी22 ने सिद्धसेन दिवाकर के विषय में लिखा है कि जैन ग्रन्थों में सिद्धसेन दिवाकर को साहित्यिक एवं काव्यकार के अतिरिक्त नैयायिक और तर्कशास्त्रों में प्रमुख माना है। सिद्धसेन दिवाकर का स्थान जैन इतिहास में बहुत ऊंचा है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदाय उनके प्रति एक ही भाव से श्रद्धा रखते हैं। उनके दो स्तोत्र अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। कल्याणमंदिर स्तोत्र और वर्धमान द्वात्रिंशिका स्तोत्र। __यह सम्राट विक्रमादित्य के गुरु और समकालीन माने गये हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय नैयायिक के अनुसार महावीर भगवान के निर्वाण के 470 वर्ष व्यतीत होने पर सम्राट विक्रमादित्य को जैनधर्म की दीक्षा दी गई थी जिसके अनुसार विक्रम संवत् 1 होता है। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने सिद्धसेन दिवाकर को ही विक्रम के नवरत्नों में से क्षपणक होना सिद्ध किया है। दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार सिद्धसेन दिवाकर का प्रादुर्भाव उनका काल महावीर भगवान के निर्वाण के अनन्तर 714 से 798 वर्ष तक रहा है। इस हिसाब से उनका काल ईस्वी सन् 187 से 271 तक रहा है। श्री सिद्धसेन के गुरु का नाम वृद्धवादिसूरि बताया जाता है जो सिंहगिरि और पालिक के समकालीन थे। वैबर ने अपने "इंडिश स्टूडीन" में विक्रमादित्य और सिद्धसेन दिदवाकर की कई कथाओं और किंवदंतियों का हाल बतलाया है। कहा जाता है कि जैनधर्म की दीक्षा लेने पर विक्रमादित्य का नाम 'कुमुदचन्द्र हो गया था। जैकोबी का विचार है कि "कल्याण मंदिर स्तोत्र" के काव्यकार ने कुमुदचन्द्र का नाम दिये जाने की कथा बिना प्रमाण लिख दी है। जैकोबी के अनुसार सिद्धसेन दिवाकर का. काल 670 ईस्वी के लगभग है। श्री शतीषचन्द्र विद्याभूषण ने सिद्धसेन दिवाकर का काल सन् 480 से 550 ईस्वी तक माना है। ___ डॉ.ज्योतिप्रसाद जैन अनेकानेक प्रमाणों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सद्धिसेन दिवाकर का समय 550-600 ईसवी सन है। 29 ___(9) आचार्य मानतुंग : आचर्य मानतुंग24 के विषय में डॉ.नैमिचन्द्र शास्त्री ने लिखा है कि मनुष्य के मन को सांसारिक ऐश्वर्यों, भौतिक सुखों एवं ऐन्द्रियिक भोगों से विमुख कर बुद्धि मार्ग और भगवद् भक्ति में लीन करने के लिये जैन कवि मानतुंग के मयूर और बाण के समान स्तोत्र काव्य का प्रणयन किया है। इनका भक्तामर स्तोत्र श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से समादृत होता है कि कवि की यह रचना इतनी लोकप्रिय रही है जिसे इसके [141] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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