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________________ दिव्य प्रकाश प्राप्त होता था। वे जाग्रत होकर श्रावकत्व ग्रहण करते। साधुत्व एंव आचार्यत्व को पर्याप्तरीत्या सार्थक करते हुए आचार्य आर्यरक्षितसरि ने अपने स्वयं का कल्याण करते हुए 'स्व' में ही पर के दर्शन कर समुदारवृत्ति से विभिन्नरीत्या जो कल्याण किया वह अपने समय का एक अनुपम आदर्श ही है। वैसे आर्यरक्षितसूरि का शिष्य समुदाय भारी संख्या में था ही, किन्तु उनके मुख्य शिष्यों के सम्बन्ध में कहा है किः तत्र गच्छे च चत्वारो, मुख्यास्तिष्ठन्ति साधवः आधो दुर्बलिका पुष्पो, द्वितीयः फल्गरक्षितः। विन्ध्य स्तुतीयको गोष्ठा-महालक्ष्च चतुर्थकः।। उनके गच्छ में मुख्यतः आर्यरक्षित के चार शिष्य थे- दुर्बलिकापुष्प, फल्गुरक्षित, विन्ध्य, एवं गोष्ठमाहिल ये चारों ही चारों दिशाओं में प्रसिद्धि प्राप्त विद्वान् एवं तत्त्वज्ञानी थे। इनकी विद्वता के सामने किसी भी विषय का कोई भी शास्त्रपारंगतधुरन्धर पंडित शास्त्रार्थ के लिये साहस नहीं करता था। कहते हैं कि एक समय गोष्ठमाहिल ने मथुरा में किसी विद्वान को शास्त्रार्थ में ऐसा पराजित किया कि वह उनकी मनस्विता पर मुग्ध हो अपने अहंत्व का परित्याग कर इनका शिष्य बन गया। इसमें गोष्ठामाहिल के साथ ही इनके गुरु आर्यरक्षित एवं शेष तीनों शिष्यों के प्रकाण्ड पांडित्य एवं उनकी तज्जन्यनिर्मल यशस्विता का चारों ओर व्यापक रूप से प्रचार तथा प्रसार हो गया। . आचार्य आर्यरक्षितसूरि ने बहुजन हिताय व सुखाय सार्वजनिक हित दृष्टया सबसे उत्तम एवं महान् कार्य किया है उन्होंने दूरदर्शिता से यह जानकारी कि वर्तमान के साथ ही भविष्य में भी जैनागमों की गहनता एवं दुसहवृत्ति से असाधरण मेधावी भी एक बार उन्हें समझने में कठिनाई का अनुभव करेगा, इसलिये आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त कर दिया। वे यहां तक समझ गये थे कि- .. .. . चतुझंकवसूत्रार्थाख्या ने स्यात्को पि न क्षमः। - इन विद्या व्यसनी परम मनस्वी चारों शिष्यों में से भी कोई एक एक सूत्र की व्याख्या करने में पूर्णतः समर्थन हो सकेगा। ऐसी स्थिति में किसी दूसरे की शक्ति नहीं कि विशुद्ध व्याख्या कर उन्हें अपने जीवन में आत्मसात कर सके। इसके पश्चात् आर्यरक्षितसूरि ने उन आगमों को पृथक चार अनुयोगों में विभक्त कर दिया। इसके अतिरिक्त आपने अनुयोग द्वार सूत्र की भी रचना की जो जैन दर्शन का प्रतिपादक महत्त्वपूर्ण आगम माना जाता है। [137]. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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