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________________ गुप्तकालीन जैन-मूर्तियां भी मिली हैं। यहां यह उल्लेख कर देना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि मालवा में जैनधर्म से सम्बन्धित पुरातात्विक प्रमाण सर्वप्रथम यहीं प्राप्त होते हैं। (3) दशपुर : दशपुर या मन्दसौर के जैनतीर्थ होने के सम्बन्ध में जैनआगम, आवश्यक सूत्र की चूर्णि, नियुक्ति और वृत्ति के अनुसार भगवान महावीर के समय में सिंधुसौवीर देश के वीर्तभयपुरपत्तन के राजा उदायन के पास भगवान महावीर की चन्दन निर्मित एक प्रतिमा थी जिसकी पूजा उदायन और उसकी रानी प्रभावती करते थे। प्रभावती के मरणोपरांत प्रतिमा की पूजा-अर्चना का कार्य देवदत्ता नामक दासी को सौंपा गया। देवदत्ता का उज्जयिनी के राजा चण्डप्रद्योत से प्रेम हो गया। चण्डप्रद्योत ने दूसरी वैसी ही प्रतिमा बनवाकर वहां रख दी एवं मूल प्रतिमा और दासी को अपने यहां ले आया। जब प्रतिमा और देवदत्ता के अपहरण की बात उदायन को विदित हुई तो उसने चण्डप्रद्योत पर आक्रमण कर कैद कर लिया और अपने देश की ओर प्रस्थित हुआ। मार्ग में वर्षा ऋतु प्रारम्भ हो जाने के कारण पड़ाव डालना पड़ा। सुरक्षा के लिये उदायन के साथी दस राजाओं ने मिट्टी के 'पुर' बनाये और उनमें अपना पड़ाव डाला। दस छोटे-छोटे पुर होने से भी इसे दशपुर कहते हैं। सांवत्सरिक प्रतिक्रमण प्रसंग से उदायन ने चण्डप्रद्योत को स्वधर्मी (जैन मतावलम्बी) समझकर छोड़ दिया और उसका राज्य भी लौटा दिया तथा प्रतिमा को लेकर उसने अपनी राजधानी को लौटना चाहा किन्तु वह प्रतिमा वहां से नहीं हटी वरन देववाणी से विदित हआ कि उदायन की राजधानी अभिसात हो जाने वाली है। इस कारण यह मूर्ति यही रहेगी। फिर यहां एक जैन मंदिर बनाकर मूर्ति को प्रतिष्ठापित कर दिया गया। चण्डप्रद्योत ने मंदिर के व्यय एवं व्यवस्था के लिये दशपुर नगर मंदिर को अर्पित कर दिया। "त्रिषष्टिशालाका पुरुषचरित" के अनुसार इस मंदिर के लिये चण्डप्रद्योत के द्वारा 1200 गांव भेंट किये गये और बाद में चण्डप्रद्योत ने भायलगढ़ स्वामीगढ़ बसाकर वहां एक जैन मंदिर बनवाया और उसमें उक्त मूर्ति स्थापित कर दी थी। प्रद्योतोऽपि वीतमय प्रतिमाये विशुद्धघीः। शासनेन दशपुरं दत्वा वन्ति पुरीमगात 1604|| अन्येधुर्विदिशां गत्वा भायलस्वामी नामकम्। देवीयं पुरं चक्रे, नान्यथा घरणोदितम्।।605।। विद्युन्मालीवृताये तु. प्रतिमाये महीपतिः। प्रददो द्वादश्रगाम, सहस्मान् शासनेन सः।।606।। 92 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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