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________________ एक पुरूषार्थ करो कि निर्मोही कैसे हो सकते हो? जिन-जिन हेतुओं से मोह बढ़ते हैं, उन-उन हेतुओ से दूर हो जाओ और अपने मस्तिष्क में गन्दगी रखना बन्द कर दो (पृ० 353)। गुरुवर ने इस सम्बन्ध में एक खीर का बड़ा ही सुन्दर दृष्टान्त दिया है। खीर खाने की जल्दी है, पर गरम बहुत है। तो ठंडा करने की चिन्ता मत करो, भगोने को आग पर से नीचे उतारकर रख दो । विषय कषायों की भट्टी पर आत्माराम की खीर रखी है, भट्टी से तो उतारता नहीं खीर और पंखा हिला रहा है, खीर ठण्डी होगी क्या? विषय कषायों से तो रूचि / प्रीति हट नहीं रही, वहाँ से हटना नहीं चाहता, वहीं पहुंच रहा है बार-बार और कहता है कि मैं कैसे ठण्डा होऊँ, कैसे महाराज बनूँ? आत्मा में जो अशुद्धि है, विकारी भाव हैं, वह सोपाधिक है। सोपाधिक दशा नियम से नष्ट होती है। बस उसको उतारकर रख दो, अपने आप ठण्डे हो जाओगे। निमित्तों से तो हटिये आप तो उपादान शीतल हो जायेगा (353)।बस सब प्रयास बन्द करके एक पुरुषार्थ करो कि मैं निर्मोह कैसे होऊँ ? जिन-जिन हेतुओं से मोह बढ़ते हैं, उन-उन हेतुओं से पहले दूर हो जाओ और अपने मस्तिष्क में गन्दगी रखना बन्द कर दो । कुभावों के संयोग से भगवान आत्मा में भगवान् आत्मा नहीं मिल पाती। कुभाव भावों के संयोग से यह आत्मा भी घूरा हुयी जा रही है, परन्तु यह सब विभाव भी आत्मा के नहीं हैं, इनसे स्वतंत्र द्रव्य हैं चेतन ।तू कुभाव भाव से ममत्व हटाकर तो देख । (354)। इसी बात को भगवन् आचार्य अकलंक देव श्लोक 17 में इस प्रकार कहते हैंकषायैः रञ्जितं चेतः, तत्त्वं नैवावगाहते। नीलीरक्तेऽम्बरे रागो, दुराधेयो हि कौंकुमः। 17/346 कषाय से रंजित चेतन, तत्व रूप शुद्ध स्वरूप को कभी नहीं निर्णय कर पाता। इस प्रकार कि, नीले रंग से रंगे हुए कपड़े पर कुमकुम का राग नहीं लगता । निश्चय ही यह दुराधेय है। ___ अतः यदि आत्म चिंतन में तत्पर होना चाहते हो तो दोषों (रागद्वेष, क्षोभ, व्याकुलता) क्रोधादि दोषों से छूटने के लिए समस्त इष्ट-अनिष्ट विषयों में तू मोह ममता रहित होकर शरीर से, संसार के विषय भोगों से उदासीन बनकर आत्म चिन्तवन में तत्पर हो जा। इन वैभाविक संयोगों के कारण ही 'स्वतंत्र चेतन भी परतंत्र प्रतीत होता है। कण-कण स्वतंत्र है, अणु-अणु स्वतंत्र है। कोई किसी के कर्म को बदलने का अधिकारी भी नहीं है। यदि आपने दूसरों के कर्म को बदल दिया तो हे ज्ञानी तू तो (74 -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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