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________________ यह आत्मा तो विवर्ण, विगन्ध, विमान, विलोभ, विकास, विशुद्ध, निर्मल है। आत्मा देखने का नहीं किन्तु स्वानुभूति का विषय है।' अरसमरूवमगंधं अव्वतं चेदणागुणमसद। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिट्ठि संठाणं॥ (49 समयसार) आनन्द अमृत का पान स्वतंत्रा में, स्व में रहकर ही किया जा सकता है। पच्चीसवें श्लोक में कहते हैं स्वः स्वं स्वेन स्थितं स्वस्मै स्वस्मात्स्वस्याविनश्वरम्। स्वस्मिन् ध्यात्वा लभेत् स्वोत्थमानन्दामृतं पदम्।। 25/391 ... स्वः, स्वं, स्वेन, स्वस्मै, स्वस्मात्, स्वस्य, स्वोत्यं - अपनी आत्मा, अपने स्वरूप को, अपने द्वारा, अपने लिए, अपनी आत्मा में अपनी आत्मा का, अपनी आत्मा से उत्पन्न हुआ अविनाशी आनन्द व अमृतमय पद अपनी आत्मा में ध्यान करके प्राप्त करे। यहाँ यह स्पष्ट है कि परम आनन्द या परम पद की प्राप्ति जब तक चेतन द्रव्य की प्रवृत्ति पर में है, तब तक प्राप्त नहीं हो सकती और हर चेतन द्रव्य इस परमानन्द की प्राप्ति के लिए स्वतंत्र है। हर श्लोक पर गुरुवर ने प्रवचन समाप्त करते हुए 'आत्म स्वभाव परभाव भिन्नं' - आत्मा का स्वभाव परभावों से अत्यन्त भिन्न है। यही चेतन द्रव्य की स्वतन्त्रता है। 19-20वीं कारिका में आ० श्री कहते हैं - स्वाधीनता ही परम सुख है। अपनी सत्ता को निहारो। आप स्वरूप सम्बोधन सुन रहे हो भैया कण-कण स्वतंत्र है। कहना ही जानते हो या स्वीकारते भी हो । अणु-अणु स्वतंत्र है, इसे केवल कहो ही नहीं स्वीकारो भी (367) संसार में रहो, लेकिन थोड़ा जागते-जागते तो रहो, थोड़ा विवेक के साथ रहो । सम्यग्दृष्टि जीव छहों द्रव्यों की सत्ता तो स्वीकारता है, परन्तु छहों द्रव्यों में उनको अपना नहीं मानता और अपने आपको उनको नहीं सौंपता | कभी अपनी सत्ता मत खो बैठना, अपने आपको किसी को मत देना, अपनों में रागमत करो और गैरों में द्वेष मत करो, यही तो स्वरूप सम्बोधन है। मध्यस्थ हो जाओ। अपनों का राग भी तुम्हें नीचे ले जायेगा और गैरों से द्वेष भी तुम्हें नीचे ले जायेगा, इतना ध्यान रखो । न अपने अपने हैं और न पराये पराये । ये सब हैं तो पर निज नहीं हैं, पर है। उनकी सत्ता को स्वीकारो, उन्हें अपना मत स्वीकारो (370)। यही चेतन द्रव्य की स्वतंत्रता है। परद्रव्यन तें भिन्न आप में रूचि सम्यक्त्व भला है। देह जीव को एक गिन बहिरातम -स्वरूप देशना विमर्श 72 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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