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________________ वक्तावक्तव्य, निधिनिषेध, कर्मबन्ध मोक्षफल आदि को भी अनेकान्तात्त्मक सिद्ध किया गया है। इस प्रकार वस्तु तत्त्व आत्मा कैसे व्यवस्थित है, इसको स्पष्ट करने के साथ कृतिकार ने लिखा है कि वस्तु स्वरूप को आत्मा कैसे स्वीकार करता है, ये उस पर निर्भर करता है। तदनुसार उन-उन कारणों से कर्मबन्ध और मोक्ष तथा इन दोनों का फल का भी वह स्वयं स्वीकर्त्ता है। आत्मा अपने रागद्वेष आदि भावों का तथा इनके द्वारा कर्मों के बंध को कर्ता है तथा उसके फल का भोक्ता है । बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग उपायों से उन कर्मों का छूट जाना भी आत्मा को ही होता है। ̈ कृति के उत्तर भाग में स्वात्मोपलब्धि के लिए अन्तरङ्ग कारणो के रूप में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को आवश्यक बताया गया है तथा बहिरङ्ग कारण के रूप में अनशन आदि तपों को आवश्यक बताया है। * तत्पश्चात् यथाशक्ति रागद्वेष रहित शुद्ध आत्मा की भावना भानें की प्रेरणा दी गयी है साथ ही आत्म चिंतन के दोषों की चर्चा की गयी है। मोक्ष कैसे पाया जा सकता है, कब नहीं पाया जा सकता आदि विचार करने के उपरान्त अन्त में आनन्दमृत पद की प्राप्ति की कामना के साथ ग्रंथ के श्रवण और व्याख्यान के लाभ बताये गये हैं। * 35 इस प्रकार 'अध्यात्म- दर्शन' की दृष्टि से 'स्वरूप-सम्बोधन' एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रकरण ग्रन्थ है। यदि यह आचार्य अकलंक देव की ही कृति है तब निश्चितरूप से आचार्य कुन्दकुन्द के बाद अध्यात्म दर्शन के प्रतिपादक आचार्य के रूप में उनका नाम सदैव स्मरण किया जाना चाहिए। यद्यपि कि अध्यात्म दर्शन के कृतिकारों में आचार्य अमृतचन्द मुकुटमणि माने जाते हैं, पर सम्भवतः वे आचार्य अकलंक देव के परवर्ती हैं। 'स्वरूप सम्बोधन' कृति की शैली प्राञ्जल और पाण्डित्यपूर्ण दार्शनिक है। आचार्य कुन्दकुन्द की विवेचन पद्धति के आधार पर उन्होनें परमात्मा, आत्मा आदि में मुक्तामुक्त, मूर्तिक- अमूर्तिक, भिन्नाभिन्न आदि के रूप में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों दृष्टियों से उसे दार्शनिक शैली में अनेकान्तात्मक सिद्ध किया है। कृति के निष्कर्ष में आचार्य कुन्दकुन्द के चिन्तन की तरह निराकुलता रूप स्वानुभव में लगने - रमने तथा आत्मतत्त्व में ही षट्कारकों को घटित करके अविनाशी, आनन्दमृत पद प्राप्त करने की प्रेरणा दी है। ' स्वरूपसम्बोधन' की विषय वस्तु को सदृष्टान्त और सुललित शैली में जनोपयोगी एवं सुगम बनाया गया है, परम पूज्य आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी की देशना में, निश्चित रूप से कृति, कृतिकार की देशना कर आचार्य श्री ने 'जैन शासन' को जयवंत किया है। इस वैशिष्ट्य के कारण 'स्वरूप सम्बोधन' और 'स्वरूप- देशना' सभी मुमुक्षुओं के लिए उपादेय है । 62 Jain Education International For Personal & Private Use Only • स्वरूप देशना विमर्श www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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