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________________ अपेक्षा से अचेतन है। आत्मा को आप चेतनाचेतन स्वभावी जानो । अस्तित्व गुण पर विशेष चिंतन करना | द्रव्य का अस्तित्व धर्म कभी नष्ट नहीं होता, द्रव्य की सत्ता कभी नष्ट नहीं होती है। इसलिए ध्यान रखो, संयोग-वियोग में हर्ष-विषाद करने की कोई आवश्यकता नहीं है, मध्यस्थ होकर रहो। जो जीव पर आलोचना में लग करके और ये सोचता है कि मैं उसे सुधारकर रहूंगा । हे जीव! वो सुधरे या न सुधरे, परन्तु विश्वास रखना, तू नियम से बिगड़ रहा है। ऐसे ही उन अज्ञानी ज्ञानियों से कह देना कि तुम दूसरे को साफ करने के लिए बैठे हो । वह साफ हो या न हो, लेकिन तेरा पुण्य नियम से साफ हो रहा है, क्योंकि पर की निन्दा कर रहा है, नीच गौत्र का आस्रव नियम से हो रहा है। (पृ० संख्या 341-342) स्वरूपसम्बोधन (पद्य 20) में कहा है स्वपरचेति वस्तु त्वं वस्तुरूपेण भावय। उपेक्षाभावनोत्कर्षपर्यन्ते शिवमाप्नुहि॥ अर्थात् तू, अपने आत्मत्त्व को, और अन्य वस्तु को, वस्तुभाव से, भावना कर, इस प्रकार अपेक्षा यानि रागद्वेष रहितपना- भाव की पूर्ण वृद्धि हो जाने पर, मोक्ष को, प्राप्त कर ||20 ॥ आगे कहा है। तथाप्यतितृष्णावान् हन्त! मा भूस्त्वमात्मनि। यावत्तृष्णा प्रभूतिस्ते तावन्मोक्षं न यास्यसि॥21॥ अर्थात्- हे आत्मन्! ऐसा आत्म-चिन्तवन होने पर भी तुम अपने विषय में भी अत्यन्त तृष्णा से युक्त मत होओ, क्योंकि जब-तक, तुम्हारे/अन्तस् में तृष्णा की भावना उत्पन्न होती रहेगी, तब तक मोक्ष नहीं पा सकोगे। और भी कहा है.. यस्य मोक्षेऽपि नाकाङ्क्षा स मोक्षमधिगच्छति। .इत्युक्तत्वाद्धितान्वेषी काङ्क्षां न क्वापि योजयेत्॥22॥ अर्थात् जिसके, मोक्ष की भी, अभिलाषा नहीं होती वह भव्य मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है, ऐसा सर्वज्ञ-देव द्वारा अथवा आगम द्वारा कहा गया है, इस कारण हित की खोज में लगे हुए व्यक्ति को कहीं भी आकांक्षा / इच्छा नहीं करनी चाहिए। देशनाकार कहते हैं-शास्त्रों का ज्ञान तुमको 'ज्ञानी 'संज्ञा तो दिला सकता है, स्वरूपदेशना विमर्श -35 35 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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