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________________ स्वरूपदेशना की विधि-निषेधशैली पर एक दृष्टि -प्राचार्य डा० शीतल चन्द जैन, जयपुर आचार्य भट्टाकलक देव की “स्वरूप सम्बोधन” महत्त्वपूर्ण कृति पर आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज के आध्यात्मिक प्रवचन दार्शनिक विधि-निषेध शैली में हुए हैं। उन प्रवचनों की फलश्रुति स्वरूपदेशना' कृति के रूप में प्राप्त हुयी है। इस स्वरूपदेशना कृति के प्रारम्भिक 10 पद्यों में देशनाकार आचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज ने आत्मा के स्वरूप का सैद्धान्तिक विवेचन विधि-निषेध शैली का आश्रय लेकर किया है और अनेकविध एकान्त मान्यताओं का निराकरण करते हुए अनेकान्तात्मक आत्मा के स्वरूप को स्थापित किया है। ग्रन्थ के प्रथम पद्य में सर्वथा मुक्तैकान्त और अमुक्तैकान्त का निषेध करते हुए आत्मा का कर्म से मुक्त (भिन्न) और ज्ञानादि से अमुक्त (अभिन्न) मुक्तामुक्त अनेकान्तरूप बताया है। देशनाकार ने विधि-निषेध शैली द्वारा किस प्रकार समझाया सो कहते हैं कि एकानत को समाप्त करने की आवश्यकता नहीं है, अनेकान्त को कहने की आवश्यकता है, अनेकान्त में पूरी शक्ति है। हमने दूसरे के खण्डन में तो प्रयोग किया, स्याद्वाद के मण्डन में कर लेता तो पर का खण्डन स्वयमेव हो जाता। अस्ति का भी कथन होता है और नास्ति का भी कथन होता है। किसी को बुरा लगता 'मैं रात्रि भोजन नहीं छोड़ सकता’ ठीक है, नहीं छुड़ाने का लेकिन उसको एक प्रतिज्ञा दे देना कि जब भी तू भोजन करना दिन में कर लेना। ठीक है, उसको विकल्प था कि मैं रात में नहीं छोड़ सकता। नहीं छोड़, कोई टेंशन नहीं, परन्तु दिन में तो खा सकता है कि नहीं खा सकता? विधि का कथन होते-होते निषेध का भी कथन होना चाहिए। यदि निषेध का कथन नहीं होगा तो ऐसे भी लोग बैठे हैं कि मैं अरहन्त की वन्दना करूँगा निर्ग्रन्थ की वन्दना करूँगा, पूछा- क्यों? तो बोले कहाँ लिखा है कि इनकी वन्दना नहीं करो इसलिए स्याद्विधि, स्यानिषेध । अतः वे सिद्ध परमेष्ठी मुक्त है कर्मों की अपेक्षा से, अमुक्त है। अनन्तज्ञानादि गुणों की अपेक्षा से अतः जो मुक्तामुक्त है ऐसे सिद्धों की वन्दना करता हूँ। आचार्य श्री विधि-निषेध शैली के माध्यम से कठिन से कठिन सिद्धान्त को चुटकी में समझा देते हैं। जैसे- छह द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र है, छहों द्रव्यों की परिणति स्वतंत्र है। कोई किसी द्रव्य का कर्ता नु हुआ, न होगा। जो कर्ता शब्द का प्रयोग है, वह ज्ञानियों! उपयोगकर्ता की दृष्टि से प्रयोग है, विकारी भावों की कर्ता की दृष्टि से प्रयोग है, लेकिन वस्तु के कर्ता की दृष्टि का प्रयोग नहीं है। (24) -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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