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________________ को सिद्ध करना पड़ता है। (पृ० 89) “वस्तु स्वरूप को समझना । करणानुयोग में प्रवचन चल रहा हो तो वस्तु स्वरूप को समझना और यदि द्रव्यानुयोग में प्रवचन चल रहा हो तो भी वस्तु स्वरूप को समझना। (पृ० 64) 3. "धर्म स्व सापेक्ष है, पर सापेक्ष नहीं हैं हम अपने चिन्तवन में स्वतन्त्र हैं, अपने उपादान को पवित्र करने में स्वतंत्र हैं। (पृ० 89) . 4. “ज्ञानदर्शनतस्तस्मात् । इसलिए ज्ञानदर्शन की अपेक्षा से आत्मा स्यात् चेतनाचेतनात्मकः । ज्ञान दर्शन की अपेक्षा से चेतन है अन्य गुणों की अपेक्षा से अचेतन है। (पृ० 112) 5. ज्ञानियों! वैशेषिक दर्शन गुण व गुणी को अत्यन्त भिन्न मानता है। वह कहता है कि आत्मा स्वयं को नहीं जानता, पर को जानता है और अपने को जानने के लिए पर ज्ञान की आवश्यकता है....... परन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि संज्ञा, लक्षण प्रयोजन की दृष्टि से द्रव्य, गुणे पर्याय में भेद है, परन्तु अधिकरण की दृष्टि से एक हैं। ज्ञान से आत्मा भिन्न है व अभिन्न है। कथंचित् भिन्न है, कथंचित् अभिन्न है।” (पृ० 125) जयसेन स्वामी ने स्पष्ट किया (समयसार टीका) कि जब तक निश्चय भूतार्थ की प्राप्ति नहीं हो रही है तब तक उसके लिए व्यवहार ही भूतार्थ है। परन्तु परम भूतार्थ दृष्टि जो परमार्थ है वही भूतार्थ है। यह समयसार की दृष्टि है। (पृ० 213) उपर्युक्त उद्धरणों से प्रकट है कि स्वरूप देशना में अध्यात्म सम्बन्धी तत्त्व निर्णय में न्याय शास्त्र की महती उपयोगिता है। उन्होनें सार रूप में एक बात का निरूपण किया है कि “नमोऽस्तु शासन के प्रति श्रद्धानिक होना है तो दर्शन शास्त्र का भी अध्ययन करना पड़ेगा । तर्कशास्त्र से जो श्रद्धा बनेगी वह टूट नहीं पायेगी। श्रद्धा से चला गया, तो कभी भी गड़बड़ हो जायेगा।” (पृ० 6) उनके प्रत्येक प्रवचन के अन्त में आचार्य अमृतचन्द्र जी के कलश का शुद्ध नय के प्रसंग सहित "आत्मस्वभाव परभावभिन्न” पद के रूप में श्लोक का प्रथम चरण उच्चारित किया जाता है। वर्तमान में अध्यात्म चर्चा के प्रासंगिम विषय, कर्ता-कर्म, उपादान, निमित्त, अशुभ-शुभ, शुद्धोपयोग, निश्चय-व्यवहार, (22) -स्वरूप देशना विमर्श 22 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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