SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह बात सिद्ध हुयी कि द्रव्य, गुण और पर्याय का अस्तित्व एक है और जो भी द्रव्य है, सो अपने गुण-पर्याय स्वरूप को लिए हुए हैं, अन्य द्रव्य से कभी नहीं मिलता, इसी को स्वरूपास्तित्व कहते हैं। सादृश्यास्तित्व- . इह विविह लक्खणाणं लक्खमणमेगं सदिति सत्वगयं। उवदिसदा खलु धम्मं जिणवणवसहेणपण्णत्तं॥ -प्रवचनसार, गा.5 इस श्लोक में वस्तु के स्वभाव का उपदेश देने वाले गणधरादि देवों में श्रेष्ठ श्री वीतराग सर्वज्ञ-देव ने ऐसा कहा है कि नाना प्रकार के लक्षणों वाले अपने स्वरूपास्तित्व से जुदा-जुदा सभी द्रव्यों में सामान्य रूप से रहने वाला “सद्-रूप” सामान्य लक्षण है। स्वरूपास्तित्व विशेष-लक्षण रूप है, क्योंकि वह द्रव्यों की विचित्रता का विस्तार करता है तथा अन्य द्रव्यभेद करके प्रत्येक द्रव्य की मर्यादा करता है, और सत् ऐसा जो सादृश्यास्तित्व है, सो द्रव्यों में भेद नहीं करता, सब द्रव्यों में प्रवर्तता है, प्रत्येक द्रव्य की मर्यादा को दूर करता है और सर्व गत है, इसलिए सामान्य लक्षण रूप है।"सत्” शब्द सब पदार्थों का ज्ञान कराता है, क्योंकि यदि ऐसा न मानें, तो कुछ पदार्थ सत् हों, कुछ असत् हों और कुछ अव्यक्त हों, परन्तु ऐसा नहीं है। जैसे- वृक्ष अपने स्वरूपास्तित्व से वृक्ष जाति की अपेक्षा एक हैं, इसी प्रकार द्रव्य अपने-अपने स्वरूपास्तित्व से छ: प्रकार के हैं, और सादृश्यास्तित्व से सत् की अपेक्षा सब एक हैं, सत् के कहने में छः प्रकार के हैं और सादृश्यास्तित्व से सत् की अपेक्षा सब एक हैं, सत् के कहने में छ: द्रव्य गर्भित हो जाते हैं, जैसे- वृक्षों में स्वरूपास्तित्व से भेद करते हैं, तब सादृश्यास्तित्व-रूप वृक्ष-जाति की एकता मिट जाती है और जब सादृश्यास्तित्व-रूप वृक्ष-जाति की एकता करते हैं, तब स्वरूपास्तित्व से उत्पन्न नाना प्रकार के भेद मिट जाते हैं। इसी प्रकार द्रव्यों में स्वरूपास्तित्व की अपेक्षा सद्-रूप एकता मिट जाती है, और जब सादृश्यास्तित्व की अपेक्षा नाना प्रकार के भेद मिट जाते हैं। भगवान् का मत अनेकान्त-रूप है, जिसकी विवक्षा करते हैं, वह पक्ष मुख्य होता है और जिसकी विवक्षा नहीं करते वह पक्ष गौण होता है। अनेकान्त से नय सम्पूर्ण प्रमाण है, विवक्षा की अपेक्षा मुख्य-गौण है। . __आचार्यश्री विशुद्ध सागर जी ने अपने प्रवचनों में पूर्वाचार्यों के शास्त्रों को दीपस्तम्भ के समान भरपूर प्रश्रय दिया है उनके आलोक में प्रमाणनिकष पर प्रामाण्यावबोधन कराने की कला उन्हें आती है। श्लोक संख्या 4 में वर्णित ज्ञानादि से आत्मा सर्वथा भिन्न और सर्वथा अभिन्न नहीं है अपितु कथंचित् भिन्न भी है और (10 -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy