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________________ रूप परिणमन होता है। जीव द्रव्य के साथ अनूठी व्यवस्था है; अशुद्ध जीव में एक साथ दो द्रव्यों में उत्पाद, व्यय, धौव्यता घटित होती है। अशुद्ध जीव में एक साथ दो द्रव्यों में उत्पाद, व्यय, धौव्यता घटित होती है। अशुद्ध जीव असमान जातीय कर्म, नोकर्म के साथ रहता है। जीव के कर्मों का परिणमन भिन्न चलता है, द्रव्य कर्मों का परिणमन भिन्न चलता है। अज्ञ प्राणी असमान जातीय पर्याय की भिन्नता को नहीं समझने के कारण क्लेश को प्राप्त होता है, जिसमें उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक द्रव्य होता है। द्रव्य का द्रव्यत्व-भाव त्रैकालिक ध्रौव्य है। यह जीव मोह के वश हुआ पर के परिणमन को स्व का परिणमन स्वीकार कर व्यर्थ में क्लेश का भाजन हो रहा है, थोड़ा भी स्व विवेक का प्रयोग कर ले, तो ज्ञानियो! लोक में कहीं भी जीव को कष्ट का स्थान नहीं है। अर्थ पर्याय का परिणमन षट् गुण हानि वृद्धि रूप प्रतिपल चल रहा है, इसे आगम प्रमाण से ही जाना जाता है, वचन अगोचर है। शरीर का परिणमन भिन्न है, आत्म गुणों का परिणमन भिन्न है, व्यक्ति कितना ही राग रूप पुरुषार्थ कर ले, परन्तु पुरुष (आत्मा) के द्रव्यत्व का जो परिणमन है, उसे नहीं रोक सकता । द्रव्य में जो सहज परिणमन है, ज्ञानी! वह किसी के प्रतिबन्धक की अपेक्षा नहीं रखता, जैसे- पुरुष का परिणमन निरपेक्ष है। ज्ञानियो! इस प्रकार को अच्छी तरह से समझना कि- उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य धर्म कभी किसी द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव की भी अपेक्षा नहीं रखता कि मैं अमुक द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के होने पर परिणमन करूँगा । वह तो त्रिकाल सर्व-क्षेत्रादि में परिणमन-शील है, पदार्थ किसी भी अवस्था में हो, परिणामीपन से रहित कभी नहीं रहता। देखो! एक रागी पुरुष अपने वर्तमान शरीर को हृष्ट-पुष्ट रखने के लिए प्रतिदिन घृत-दुग्धादि पौष्टिक द्रव्यों का सेवन करता है, तथा अखाड़े में जाकर व्यायाम भी करता है, फिर भी ढलते शरीर को नहीं बचा पाता है, उसको भी देखते ही देखते मृत्यु का सामना करना पड़ता है,यानि कि राग के वश होकर कर्म-बन्ध ही कर पाता है, पर शरीर के परिणमन पर कोई पुरुषार्थ नहीं चलता। लोक में ऐसी कोई औषधि निर्मित नहीं हुयी, जिससे कि प्रकृति के इस ध्रुव धर्म को रोका जा सके। आचार्य अकलंक देव ने श्लोक संख्या 3 में आत्मा को प्रमेयत्वादि धर्मों से अचित् अर्थात्/अचेतन रूप. और ज्ञानदर्शन के कारण चिदात्मक अर्थात् चेतन बताकर उसे चेतनाचेतनात्मक प्ररूपित किया है। आचार्य विशुद्ध सागर जी अपने प्रवचन में उपर्युक्त श्लोक के मर्म को उजागर करते हुए द्रव्य के सामान्य - विशेष गुणों की चर्चा की है। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुत्व, अलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्त्व इत्यादि द्रव्यों के सामान्य गुणों को रेखांकित करते हुए उनकी विचारणा उन्होंने पंचास्तिकाय, अलाप पद्धति, प्रवचनसार, द्रव्यसंग्रह के आलोक में की है।" स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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