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________________ सिद्ध- जिन्होंने संसार में भटकाने वाले समस्त कर्मों का क्षय करके संसार में पुनः न आने वाले सिद्धत्व पद को प्राप्त कर लिया है। साधु - आचार्य, उपाध्याय एवं साधु जो अर्हंत के बताये मार्ग का आचरण करते हुए सिद्धत्व प्राप्ति में निरन्तर साधनारत हैं । यह स्वयं मंगलमय हैं तथा जगत् का मंगल करने वाले हैं। सिद्धचक्र महामंडल विधान एवं पंचपरमेष्ठी विधान में पंच परमेष्ठी मंगल कैसे हैं, क्यों हैं? का विस्तृत विवेचन मिलता है। मंगल आचरण करने की प्रेरणा से जीवन मंगलमय बनाने का निर्देशन मिलता है। साधक इन मंगलमय आराध्यों का मंगल आराधन एवं मंगल आचरण व्रतानुष्ठान संयमाचरण, तपश्चरण, यम एवं नियम द्वारा अपने जीवन को पवित्र करने सम्यक् पुरुषार्थ करते हैं। इसमें अलग-अलग अपेक्षाएँ हैं, जहाँ संसारी जीव संसार के उद्यम को मंगलरूप आचरित कर अपना कर्तव्य करते हुए मंगल की ओर अग्रेसित होना चाहता है। वहीं हमारे श्रमण स्वयं को संसार के कीचड़ में लिप्त होने से पहले ऊपर उठकर मंगल बनकर मंगल आचरण से जन-जन के लिए प्रकाश स्तम्भ बन गये हैं । 13 त्रिजगद्वल्लभोऽभ्यर्च्यस् त्रिजगन्मंगलोदयः । आचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज इसका साक्षात् उदाहरण हैं, आज ब्र. राजेन्द्र लला आचरण की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए क्षुल्लक यशोधर सागर, मुनि विशुद्ध सागर, आचार्य विशुद्ध सागर के रूप में विराजमान हैं। आज वह मंगलरूप में, मंगलस्वरूप में, मंगल कामना, मंगल आराधना, मंगल देशना, मंगलचर्या द्वारा मंगल आचरण द्वारा जन-जन को आकर्षित कर जिनशासन की मंगलमय प्रभावना कर रहे हैं । आचार्य श्री के शब्दों में मनुष्य का जन्म भोग की शैया पर होता है, भोग कुछ शैया पर ही भोग भोगकर मरण को प्राप्त हो जाते हैं तथा कुछ भोग शैया को छोड़कर योग धारण कर जीवन में संयम साधना, तपश्चरण का मंगलाचरण कर लेते हैं। यथा पंक का कीड़ा जन्म से मरण तक उसी पंक में लिप्त रहता है और पंकज उसमें जन्म लेकर भी उससे ऊपर उठकर जीवन पावन कर लेता है। 206 Jain Education International For Personal & Private Use Only • स्वरूप देशना विमर्श www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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