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________________ उसका कथन करता है और आदर से सुनता है तो स्वरूप सम्बोधन पञ्चविंशति उसके लिए परमात्म सम्पदा को प्रगट कर देती है मानों परमात्मा बनने की सम्पदा उसे यहाँ परमात्मा बनने की भावना के रूप में सुलभ हो जाती है। मंगलाचरण श्लोक में आचार्य अकलंक उपदेश का जो बीजारोपण करते हैं वह अपने आप में अत्यधिक महत्त्व संधारित किये हुए है। द्रव्य स्वरूप की सम्यक् जानकारी से ही वह हमें अभिज्ञात होकर स्वरूप सम्बोधन की भावना से भर देता है। आचार्य अकलंक लिखते हैं- ज्ञानावरणादिक द्रव्य कर्मों, शरीरादि नो कर्मों एवं मोहादिक भावकर्मों से छोड़ा गया (कर्मभिः मुक्तः) तथा ज्ञानादि गुणपर्यायधर्मों से कभी भी न छोड़ा गया (संविदादिनाऽमुक्तः) जो आत्मा है वह उभय परिस्थितियों में एक रूप ही है उसको ही ज्ञानमूर्ति अक्षय परमात्मा कहते हैं मैं ऐसे ज्ञानमूर्ति. अक्षय परमात्मा स्वरूप अपने आत्मा को प्रणाम करता हूँ। यह ही यहाँ स्वरूप सम्बोधन लिए जिज्ञासु के मन में अपनी आत्मा को जानने रूप भावना का बौद्धिक रोपण है। आचार्यश्री विशुद्ध सागर जी ने भी अपने व्याख्यान में मङ्गलाचरण की यथार्थता को उजागर करने के बाद उपर्युक्त वैशिष्ट्य को समझाया हैं तथा जीव की मुक्त एवं अमुक्त दशा में व्यापृत द्रव्यों की स्वतंत्रता को उजागर करने के लिए वे कहते हैं- यहाँ पर यह विषय अच्छी तरह समझ में आ गया होगा कि जब पुद्गल (कर्म) का बन्ध दो ध्रुव भिन्न द्रव्यों के साथ है, जब दोनों का विभक्त भाव होगा तब दोनों का अभाव नहीं होगा वैसी अवस्था में दोनों द्रव्य पर सम्बन्ध से रहित होकर स्वतन्त्रपने को प्राप्त होते हैं। जड़मतियों ने मोक्ष का अर्थ अभाव समझकर स्वअज्ञता का परिचय दिया है, द्रव्य का अभाव होता ही नहीं, द्रव्य का लक्षण ही सत् है।"" यहाँ पंचास्तिकाय की निम्नगाथा उद्धृत करके द्रव्य स्वरूप को समझाने का उद्यम उन्होनें किया है "दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्ययधुवत्तसंजुतं । गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्व ॥ अर्थात् जो सत् लक्षणवाला है। उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य से संयुक्त है अथवा पर्यायों का आधार हैं उसे सर्वज्ञदेव द्रव्य कहते हैं। यथार्थ में द्रव्य की सत्ता ही द्रव्य का लक्षण है। जैसे आर्द्र दीवार पर रज कण लगे होते हैं, दीवार के सूखने पर रजकण स्वयमेव विगलित हो जाते हैं उसी प्रकार से आत्मा के राग की आर्द्रता से कर्मकण लग जाते हैं । वीतरागभाव यथाख्यात चारित्र के बल से वे कर्मकण पृथक् हो जाते हैं अथवा यों कहें कि जिस प्रकार अग्नि के माध्यम से स्वर्ण को पृथक् Jain Education International For Personal & Private Use Only • स्वरूप देशना विमर्श www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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