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________________ द्रव्य स्वतंत्रता- एक अनुचिन्तन -डॉ० सुशील जैन, कुरावली (मैनपुरी) भौतिक जगत् के सूक्ष्म तत्त्वों को खोजने में जैन आचार्यों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आचार्यों ने द्रव्य की परिभाषा बतलाते हुए कहा है- जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया गया था अथवा गुणों को प्राप्त हुआ था । गुणों के द्वारा जो प्राप्त किया जायेगा या गुणों को प्राप्त होगा उसे द्रव्य कहते हैं। द्रव्य – गुण - पर्याय का कथन तो सम्पूर्ण द्वादशांग में है। पद्म -पुराण में आचार्य श्री रविषेण स्वामी लिखते हैं जो पुण्य पुरुष पुराण का पाठ कर लेता है उसके पुण्य की वृद्धि होती ही है, लेकिन कर्म की निर्जरा भी होती है। सत् द्रव्य का लक्षण है। सत् अस्तित्व का वाची है। लोक में जितने भी अस्तित्ववान पदार्थ हैं सब सत् हैं। सत् उत्पाद व्यय और धौव्य से युक्त रहता है। उत्पाद-उत्पन्न होना, व्यय-विनाश होना, धौव्य - स्थायित्व होना ये तीनों बातें प्रत्येक सत में युगपत घटित होती हैं। लोक में जितने भी पदार्थ हैं सब परिणमनशील हैं उनमें प्रतिसमय नयी-नयी अवस्थाओं की उत्पत्ति होती रहती है। नयी-नयी अवस्थाओं की उत्पत्ति के साथ ही पूर्व-पूर्व अवस्थाओं का विनाश भी होता है यह उसका उत्पाद - व्यय है। पूर्वावस्था के विनाश और नयी अंवस्था की उत्पत्ति के बाद भी पदार्थ में स्थायित्व बना रहता है। यह अवस्थिति ही धौव्य है। जैसे- दूध से दही बना, दूध का विनाश हुआ दही का उत्पाद हुआ, गौ रस धौव्य रहा। इस प्रकार द्रव्य को उत्पाद- व्यय, धौव्य वाला कहा जाता है। ‘उत्पाद व्ययधौव्ययुक्तं सत्'। जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक हो वह सत् है। ‘सद् द्रव्य लक्षण' द्रव्य का लक्षण सत् है और जो सत् है वह उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मक है। जिसमें उत्पाद- व्यय हो रहा है वही द्रव्य है जब निहारेंगे, अन्दर जायेंगे तब वस्तु के स्वभाव को नहीं बदल पाओगे । ज्ञानी बाल काले हैं कि कर लिए हैं, विचार करो गंभीर तथ्य है 'स्थित्युत्पतिव्यायात्मकः'। द्रव्य के छह भेद बताये हैंजीवा पोग्गलकाया धम्मा धम्मा य काल आयासं। तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुण पज्जएहिंसंजुत्ता॥(नियमसार) . जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये तत्त्वार्थ द्रव्य कहे गये हैं।जो नाना गुण पर्यायों से संयुक्त हैं। जीवद्रव्य परम पूज्य आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज स्वरूप देशना में लिखते हैं 182 स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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