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________________ है। तुम बड़े प्रेम से कहते हो कि महाराज! आशीर्वाद दे दो, जॉब लग जाए। हे पागलो! तुम नौकर बनने का आशीर्वाद माँगने आए, महाराज बनने की बात करो। हम देखते हैं कि आचार्यश्री ने स्वरूप सम्बोधन ग्रन्थ की व्याख्या के अन्दर लोक व्यवहार, परिवार की मर्यादा, राष्ट्र की मर्यादा एवं लोककल्याण सभी समाहित होता है। आचार्यश्री का परिणामो की विशुद्धि पर विशेष ध्यान रहता है। क्योंकि तभी तो नौकरी को हमारी प्राचीन आगम परम्परा के अनुसार हेय दर्शाया गया है। यही नहीं आचार्यश्री अपने उद्बोधन में बताते हैं कि हे प्राणियो! सभी गतियों में हर जीव अपने-अपने कर्म बंध के अनुसार फल भोगता है। देखिये- “सौधर्म इन्द्र के पास जितना वैभव होता है, ऊपर के स्वर्गों में उतना वैभव नहीं होता, लेकिन वे सुखी क्यों होते हैं? अहमिन्द्र होते हैं। न किसी को आज्ञा देते हैं, न लेते हैं, इसलिए सुखी होते __ आचार्य श्री अपने उद्बोधन में हमेशा उत्कृष्टशील, संयम एवं ब्रह्मचर्य पर जोर देते हुए कहते हैं- "दृष्टि हो तो ज्ञानी विक्रमादित्य जैसी हो! रहस्य की बात! सम्राट. विक्रमादित्य पर एक स्त्री मोहित हो गयी। उसने उसी भाषा का प्रयोग किया। सीधे तो नहीं बोल सकी। क्या बोली? स्वामी मेरी तीव्र भावना है कि आप जैसे वीर सुभट बालक को जन्म दूँ । राजा विक्रमादित्य समझ गये कि उसकी दृष्टि खोटी हो गयी है। सम्राट धीरे से झुकता है और चरण पकड़ लेता है, कहता है माँ! मैं ही तेरा बालक हूँ। बालक होने में देर लगेगी, मैं आज से ही तेरा बालक हूँ।' उस माँ की आँखों से आँसू टपकने लगे।हाय मेरे पापी मन को, क्या सोच रही थी? और धन्य हो इस वीर पुरूष को, जो हर नारी को माँ कहता हो । ये भारत भूमि ऐसे ही महान् नहीं है। ऐसे महान् जीवों को अपनी छाती पर, गोदी पर रख चुकी है।" काश! इसी प्रकार से सभी विद्वत्जन ब्रह्मचर्य की इस उत्कृष्ट परम्परा को जगत् में स्थापित करने में योगदान दें तो परे विश्व से नारी शोषण, नारी उत्पीड़न, व्यभिचार व बलात्कार नाम की घटनाऐं मिट जायेंगी। नारी हमें एक साक्षात माँ, देवी भगवती, सरस्वती के रूप में दिखायी देने लगेगी। यह कर्म भूमि नहीं बल्कि एक स्वर्गधरा में परिवर्तित हो जायेगी। इसी प्रकार से आचार्य श्री अपने उद्बोधन में हमेशा इस पंचमकाल में होते हुए भी ज्ञानियों को सतत् कल्याण में लगे रहने का मार्ग दर्शन देते हैं। यही वजह है कि उनकी प्रवचन सभा चतुर्थकालवत् समोवशरण का रूप ले लेती है। प्रवचन सभा के अन्दर आचार्यश्री कितनी ही देर तक बोलते रहें, कितना ही समय निकल जाता है, परन्तु पता ही नहीं लगता। ऐसा लगता है मानो सीमन्धर भगवान् की देशना का 176 -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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