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________________ प्रारम्भ करोगे तो जैसे बात बढ़ेगी वैसे ही बात बढ़ जायेगी। जब भी किसी जीव का किसी से संबंध स्थापित होता है, तो पहले बातचीत होती है कि नहीं ? बंध का कारण 'शब्द' है, बंधने का कारण 'शब्द' है, छूटने का कारण भी ' शब्द ' है । स्याद् वाच्य, स्याद् अवाच्य। वक्तव्य अवक्तव्य । ज्ञानी ! स्वभाव दृष्टि से निर्बंध दशा का व्याख्यान करते हैं तो आत्मा परिपूर्ण अवाच्यभूत है। वस्तु न सर्वथा अवाक् गोचर है। स्यात् वचन गोचर भी है। यदि वचन गोचर नहीं है तो आत्म प्रवाद पूर्व का क्या होगा? उसमें आत्मा का ही वर्णन है। जितना द्वादशांग है, सम्पूर्ण द्वादशांग में द्रव्य - गुण पर्याय का ही वर्णन है। और द्रव्य-गुण-पर्याय छः द्रव्य की होती है। आत्मा भी एक द्रव्य है। मुख में जितनी भाषाएं हैं, भगवान तीर्थंकर की वाणी जो खिरा करती है वह एक भाषा में नहीं, दो भाषा में नहीं, अट्ठारह महाभाषाऐं और सात सौ लघु भाषाओं में तीर्थंकर की देशना खिरती है। अर्थात् शब्दों के माध्यम से हम भावों को समझते हैं । आचार्य भगवान् अकलंक स्वामी निष्कलंक स्वभावी भगवान् आत्मा के सत्यार्थ स्वरूप का व्याख्या न कर रहे हैं। भूतार्थ दृष्टि को समझना, अभूतार्थ दृष्टि से अपने को भिन्न करना, ज्ञानियो! बहुत कठिन है। अभूतार्थ में भूतार्थ की मान्यता ही मिथ्यात्व है और भूतार्थ को अभूतार्थ मानना ही मिथ्यात्व है। सत्यार्थ सत्यार्थ है, असत्यार्थ असत्यार्थ है, लेकिन ज्ञानियो! सत्यार्थ भी सत्यार्थ तो है ही, असत्यार्थ भ सत्यार्थ है । वस्तु स्वरूप के प्रति इतनी अज्ञ दृष्टि जीव की है कि वह असत्य को असत्यार्थ ही मानता है, जबकि असत्य भी सत्यार्थ है । असत्य को असत्य तो कहना, परन्तु असत्य को असत् मत कहना । यदि असत्य असत् है, तो असत्य किस बात का और सत्य असत् है, तो सत्य क्या ? आपको असत्य की भी सत्ता स्वीकार करनी पड़ेगी । असत्य की सत्ता नहीं स्वीकारोगे तो असत्य है क्या ? असत्य की सत्ता को ही ज्ञानी सत्य कहेंगे । असत्य भी सत्य है, तभी तो असत्य है । असत्य सत्य नहीं होता तो आप कैसे बोलते हो कि मैं असत्य बोल रहा हूँ। पहले उसकी भी सत्ता स्वीकार करना पड़ेगी। देखो, भाई ! कठिन हो जाए तो विकल्प नहीं करना, परन्तु इस विषय को नहीं समझेंगे तो अन्दर का मिथ्यात्व विगलित होगा कैसे ? आओ, सरल कर लो। किसी व्यक्ति ने आपको किसी विषय पर झूठा कह दिया। जो आपको झूठा कह रहा है तो मुझे ये सत्ता स्वीकार करनी पड़ेगी कि झूठा भी एक है, झूठ भी कोई वस्तु झूठ की सत्ता है। झूठ की सत्ता नहीं होती तो झूठ को छोड़ने की बात किसलिए करते हो। इसलिए भूतार्थ की भी सत्ता है, अभूतार्थ की भी सत्ता है। सत्ता की दृष्टि से • स्वरूप देशना विमर्श 156 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.janelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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