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________________ साध्य का ज्ञान होता है। धुआँ निकल रहा है, तो अग्नि कहीं होनी चाहिए। जो ज्यादा श्रृंगार करके आ रहा है और भगवान के मन्दिर में भी सजकर आ रहा है, तो तात्पर्य कुछ और है; क्योंकि वीतरागी को तेरे चेहरे की सुन्दरता की आवश्यकता नहीं है, भक्ति की आवश्यकता है। 37 इष्टोपदेश का श्लोक देते हुए योगियों की दृष्टि कह रहे हैं......... "उस निग्रंथ योगी से पूछना, महाराज! आप मल विसर्जन करने जा रहे हो, यह तो समझ में आ गया कि उत्सर्ग समिति का पालन करने जा रहे हो, लेकिन आपने जो यह बात कह दी कि उसको खड़े होकर देखना, ये कोई बात-जैसी नहीं लगती। किसको ज्ञेय बना रहे हो? मल को ज्ञेय बना रहे हो? आपको क्या मालूम किसे ज्ञेय बना रहे हैं? मल के पिण्ड को भी देख रहे हैं और वहाँ वैराग्य की धारा प्रारम्भ हो गयी। __ "भवन्ति प्राप्य यत्सङ्गमशुचीनि शुचीन्यपि। स कायः सन्ततापायस्तदर्थं प्रार्थना वृथा॥18॥ *. जिसका संयोग पाकर पवित्र पदार्थ भी अपवित्र हो जाते हैं तथा वह शरीर सद विनाशीक बना रहता है, अतः उसको पवित्र करने की कामना व्यर्थ है। पुराण पुरुषों का दृष्टान्त देते हुए समझा रहे हैं कि घर-घर में द्रव्य-दृष्टि लगाने की आवश्यकता है, जिसके प्रति अशुभ भाव-परिणाम हो रहे हैं उसके रूप को नहीं स्वरूप को देखकर स्वरूप-अस्तित्व का चिंतवन करने का उपदेश देते हुए । कह रहे हैं...... “ज्ञानी!लंकेश से पूछ लेना कि, हे लंकेश! तूने क्या देखा? तूने क्या देखा? तूने सीता के रूप को ही तो देखा! हे रावण! जिस आँख से तूने सीता के रूप को देखा, उस आँख से सीता के स्वरूप को देख लेता, तो सीता तुझे नारी नहीं दिखती, तुझे सीता में तीन लोक के नाथ भगवान दिखाई देते । जितने बेचारे बैठे हैं यहाँ वे किसी से बंधे नहीं है। बेचारे रूपों से बंध गए और रूपातीत को भूल गये, सो रूप बेचारों के बिगड़ गये । क्यों भैया! क्या हो गया? ज्ञानी! किसी कन्या के रूप को तू न देखता, तो आज तेरा ये रूप न होता । आज तेरा यही रूप होता, जो इन लोगों (मुनिराजों) का रूप है। (मुनियों की ओर इशारा करते हुए) कितने भोले हैं? दादा! आप वृद्ध होकर क्यों सभा में हँसी करा लेते हो? आप मेरे से बोल रहे थे कि मैंने रूप को देखा ही नहीं है। हे ज्ञानी! आँखों से देखने नहीं गया था, परन्तु तूने और गहरा देखा | मन से देख रहा था। देखा कि नहीं देखा? रूप को ही तो देखा । जितने आज तक बंधे हैं, (106) -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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