SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रसिद्ध असिद्ध है उसे ही हम प्रसिद्ध सिद्ध कर पायेंगे। घोर - मिथ्यादृष्टि जीव भी बैठा हो तो अशुभ भाव मत लाना । क्यों? हे ज्ञानी । कच्चा माल नहीं होगा तो पक्का माल कहाँ से आएगा? निमाड़ मालवा में कपास न हो तो आप फैक्टरी में वस्त्र कहाँ से लाओगे? मिथ्यादृष्टि जीव नहीं होंगे, तो सम्यग्दृष्टि जीव कहाँ से लायेगे ? . मारीचि नहीं होता, तो महावीर कहाँ से मिलते आपको ?" 17 यही बात दोहराते हुए श्लोक तीन की देशना में कहते हैं..... "सुनो, मिथ्यादृष्टि भी यहाँ बैठा हो तो उसे भगाना मत, क्योकि असिद्ध को सिद्ध करना पड़ता है, सिद्ध को सिद्ध नहीं करना पड़ता है, ये प्रसिद्ध सिद्धान्त है । मिथ्यादृष्टि होंगे तभी तो सम्यग्दृष्टि बनेंगे। मिथ्यादृष्टि जीव ही नहीं बचेगें तो सम्यग्दृष्टि कहाँ से आयेंगे ? निगोद में अनन्त सम्यग्दृष्टि है क्या ? निगोद में अनंत मिथ्यादृष्टि हैं, वे ही निकलते हैं। कच्चे माल ही तो यहाँ पक्के बनते हैं। इसलिये भैय्या! यदि किंचित् भी आपको द्रव्यदृष्टि समझ में आ रही हो तो आज से किसी भी जीव को गाली मत देना । मारीचि की पर्याय को जिसने गाली दी, उसने महावीर को गाली दी कि नहीं दी?" ' 18 दूध-जल में मिला होने पर भी दोनों अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते, और न पर रूप होते हैं। इसी प्रकार आत्मा और कर्मादि पर द्रव्यों का संश्लेश संबंध होने पर भी एक ही समय में आत्मा ग्राह्य और अग्राह्य कैसे हैं? यह समझाते हुए अकलंक देव ने जो श्लोक 2 में चरण दिया "योग्राह्योऽग्राह्यनाद्यन्तः..." 11 । उसका विस्तार करते हुए स्फटिक और पुष्प का दृष्टान्त दिया है। स्फटिक मणि के सामने जैसा पुष्प आए वैसी दिखना प्रारम्भ कर देती है, लेकिन मणि पुष्परूप नहीं होती। ऐसी ही आत्मा है। आज तक मेरे आत्मद्रव्य ने परद्रव्य को स्वीकार नहीं किया। मैं समझ रहा हूँ कि कर्म, नोकर्म, भावकर्म से बद्ध है आत्मा । इतना होने के उपरान्त भी जैसे स्फटिक के सामने पुष्प आया अवश्य है, लेकिन स्फटिक ने पुष्प को किंचित भी अपने में स्वीकार नहीं किया। उस स्फटिक रूप नहीं है । ये पारदर्शिता का प्रभाव है कि उसमें झलकता है, लेकिन स्पर्शित नहीं हुआ। ऐसे ही आत्मा की पारदर्शिता का स्वभाव है। शुद्ध आत्मा ने कभी भी परद्रव्य को स्पर्शित नहीं किया । इसिलिए अग्राह्य है ये आत्मा । स्पर्श, रस, गंध आदि द्रव्यों से खींचा नहीं जा सकता, इसलिए अग्राह्य है; परन्तु निज स्वरूप में लीन होता योगी, इसलिए ग्राह्य है ।" 19 आज के भौतिक-विज्ञान के सिद्धान्तों का खण्डन करते हुए द्रव्य की धौव्यसत्ता को अभिव्यक्त करते हुए वीतराग विज्ञान का सूत्र देते हैं. "ऐसे ग्राह्य व अग्राह्य स्वरूप, भगवत् स्वरूप आत्मा अनादि से है और अनंत काल तक रहेगा ।" 98 Jain Education International For Personal & Private Use Only स्वरूप देशना विमर्श www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy