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________________ आगम (३८/१) “जीतकल्प” - छेदसूत्र-५/१ (मूल) --------- मूलं [३५...] ---- --------- भाष्यं [१२६४] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३८/१], छेदसूत्र - [५/१] "जीतकल्प" मूलं एवं जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण विरचितं भाष्य प्रत सुत्रांक [३५] दीप अनुक्रम प्रकारका उस्सकन कन्नती मणिना वेटेण दे भत्तं ॥४॥ कन्नामि मणति पेल तो ते बाहामि पुत!मा रोच। साब समत्ता पेल देही एताहे सो भणति ॥ मा ताच मंल पुत्तय! परिवाडीए बहेहिहा साहु । एवमुट्टिता ने दाह सोउं विषनेति ॥६॥ अंगुलिए चालेउ कइदति कप्पहतो परं जत्तो। किन्ति ? कहिए ण वचति पाहुडिया एअ मुहमा उ ॥७॥ पायरपाडियाविय ओसकाहिसकणे य इविहा उ। कप्पङगसंघाडय ओसरणेणं च णिदेसो ॥८॥जह पुत्तचिचाइदिणो ओसरणातिच्छिए सुणिय सइदो। ओसके ओसरणं संखडिपाहेणदाही ॥९॥ अप्पनम्मी ठवियं ओसरणे होहिइत्ति उसके । संपागडमितरं वा करेति उनमगुन वा ॥१२७०॥ मंगलोतं पुष्णहया व ओस तं च उसके । किं कारणीति पुडो सिद्धे ताहे विधजेन्नि ॥१॥ पाइडिभन्न भुंजनि ण पडिकमए य तस्स ठाणस्स। एमेव अडति बोडो लुकणिलुको जह कवा(मे)हो ॥२॥ पाइडिया भणिनेता एनो पायोवगरण बोच्छामि। पाद पयासणम्मी अपगासपगासणं जनु॥३॥ पायोकरर्ण दुनिह पागढकरणं पगासकरणं च। पागडि मासलई तू पगासकरणे उ चतुलगा ॥४॥ लहुमासे पुरिम चतुलहुए दाग होति आयामं। पायोकरणं भणिय कीनकडमयो न पोच्छामि ॥५॥कीतकहंपिय दुविहं दोभावे व बुहिमेकेके आयपरकीयमे पचिन तेसि वोच्छामि ॥६॥ दबायपरसीए विहेवि चाह मुणेयम् । दाणं आयामं न भावम्मि अनो पर वोच्छ॥७॥ भाषेतू आयकीय पाउलगा एत्य वा मुणेया। दाणं जायाम भावे परकीय बोमामि ॥८॥ मासलहमिहावनी दाणं पुण एन्य होनि परिमाइडं। कीयकडेय भणिय पामियमतो उ बोच्छामि ॥९॥ पामिचंपिय दुविह लोइय लोउत्तरं समासेण। लोहएं चतुलहुगात आपत्ती वाण. मायाम ॥१२८० ॥ होउन मासलहूं दाणं पुण एत्य होति पुरिमाइद। पामिचेयं भणियं परियहियमिणमों बोच्छामि ॥१॥ परियाहियपि हि लोय लोउन समासेज। लोहएं। चालडूगा न आवनी दाणभाषामं ॥२॥ोउनरें मासरहुँ आवती दाण होति पुरिमई। परियष्ट्रिय मणिएवं अभिहडदार अयो वोछ ।३॥त होति तुहाऽभिहडं आनिष्णं चेष नह अणावणं । आइण्ण णोगिसीई होनि णिसीइंच इविहन॥४॥ उणे मिसीह भण्णाति पगई पुग होति गोपिसीइति । एकेक परगामे सम्मामे चेव बोदा॥५॥सम्गामाइड इहि आइष्ण चेप होयाणाहणं। अगदपणे मासलाई दागेत्थं होनि पुरिमड्ढे ॥ ६॥ परगामाहा विहं सदेस परवेसओवणायचं। एक्केरक पुण दुविहं जलेण नह पलपहेण च ॥ ॥ सप्पचवाय णिपबचाय पुण होनि विहमेक्केका संजमआयचिराहण सपथचायम्मि जोएजा ॥८॥ परदेसआइटम्मी सपषवायम्मि होम्ति पाउगुरुगा। शिप्पथमाएं लगा। दाणं एनेसि वोच्यामि ॥९॥ चउगुग्गे अमनहूँ दाणमिहं होलिन मुणेया। पाउलहुए आयामं एमेव य होति साडेसे ॥१२९० ॥ उभिष्ण होनि निविह पिहिनुभिष्ण कनाड| भिषण। जन पिहितभिष्ण ने दुविहं फासुगमफासु ॥ १॥ फासुगळगणे न दहरएणं च एत्य मासलहु । ताहिय पचहणदोसा दाणं पुण एत्य पुरिमददं ॥२॥ अफामुपुढविमादी सचिनेक नजभवे हिन्न । तहियं उम्भिन कायाण चिराहणा इनमो ॥३॥ सवित्तपुदाविलितं लेल सिलं वापि दाउमोलिन। सचिनपुदमिलेको चिरपि उदग अधिरमिते ॥४॥ चिरछिनपदविकायो निम्मेत लिप्पमाणि आउचहो। जउमुरताचणम्मी नेऊ वाऊपि तत्येव ॥५॥ पणगरियाइ वणस्सति तसथपिपीलिएवमादीहि । एने ऊ निष्पने इमे तु दोसा तु उलिने । ॥ परम्सन देनि साए मेहे, ना बलोणं व पयं गुलं वा। उम्पाडित तं तु करेयऽवस, स विख्य तेण किणाति वा ॥ ७॥ वाणकपक्कियादी अहिगरण होनि अजयभाषत। णिव:नि जे बनहियं जीना मुइयंगमूसादी ८॥ जहेच कुभादिमु प्रचलिने, उभिजमागम्मिधि कायपाओ। ओलिप्पमाणेवि तहेष पात्रो, उम्भिण्यामेय पिहियपि पुन ॥९.- पनि दाणमेय मोहेन पडलहू पुगेया। दाणं आयाम विभागो कायणिकम् ॥ १३००॥ एमेष कवाडम्मिवि कायपहो हो। ऊ मुयो। उम्पिदिय पिहिने सविसमा जनमाईम् ॥१॥परकोडरसनारा आउनण पेदियाए हिचरि। गिन्ते ठिने व अन्नो डिभावीपणे दोसा ॥२॥ एत्वचि पडलमा ओहेगं दाणमेत्यमायामाहोनि विभागेणं पुणी पुढवादीकायगिप्पणं ॥ ३ ॥ उम्भिण्णेयं भणियं अहणा मालाहट पवस्वामि । न लिविह उढमहे निरिपं मालाहट चेव।४उद्दड दुभूमादीयं अह उहियकोहयालय होनि। निति अदमात्मादी हत्यपसाराउज मिहे ॥५॥ संबंपियनं दुरिह जहष्ण उकोसयं च बोदा। अग्गपएहि जहष्णं नविपरीयनि उकोस ॥६॥ मालोहर उकोसे आवनी पड मुणेनया। दाग आयामं तु जहण्णमालोहडमियामि ॥ ॥ एत्य तु मासातहत आपत्ती दाग होनि पुरिमदद। इय मान्योहा मणितं अच्छेनं अहण बोच्छामि ॥८॥ निविहं पुण अच्छे पभूयसामी य नेगए चेव । एकेक बनुलडगा दाणं पुष एन्थमायामं ॥९. अणिसिटुंपि य निविहं साहारण चोलाए बजइडे या निविदापिय अणिसट्टे पडलहगा दाणमायाम ॥१३१०॥ साहारणमणिसदं दाइयमादीण जनु होनाहि । वीरे आपण संखडि दिहतो गोडिभत्तेणं ॥१॥सो बोलगोऽपि दृषिहो डिमडिण्ण समासनो होनि। परिठिण्णां चिय दिजनि एसो हिण्णो पुणेतको ॥२॥ अच्छिण्णपरीमाणो सोऽवि णिसलो तहेब अणिसहो। जीसहो नेसि बिय तृण समपितो जो तु॥३॥ जाणेनि मनसेस जगहिय एक होनि १०३५ जीतकल्पमाप्यं - मुनि दीपरमसमर [३५] ~29~
SR No.004138
Book TitleAagam 38 A JEETKALP Moolam evam Bhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDeepratnasagar
Publication Year2015
Total Pages59
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size20 MB
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