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आगम
(१५)
“प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२६८]
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दीप अनुक्रम [५११]
सुहुमपुढविकाइयाणवि चादराणवि, एवं चेव पज्जत्तापज्ज चाणवि, [एवं चेव] आउक्काइयएगिदियओरा० भंते ! किंसंठिते पं०१, गो.! थियुकबिंदुसठाणसंठिते पं०, एवं सुहुमवादरपञ्जत्तापज्जत्ताणवि, तेउकाइयएगि० उरा० भंते ! किंसंठिते पं०१,गो! सूईकलावसंठाणसंठिते पं०, एवं सुहुमवादपज्जत्तापज्जत्ताणवि, वाउकाइयाणवि पडागासंठाणसंठिते, एवं सुहुमवादरपजचापज्जत्ताणवि, वणफइकाइयाणं णाणासंठाणसंठिते पं०, एवं सुहुमवादरपजचापजत्ताणवि । बेइंदियओरा० भंते ! किंसं०५०१, गो०! हुंड संठाणसंठिते पं०, एवं पजत्तापजचाणवि, एवं तेइंदियचउरिंदियाणावि । पंचिंदियतिरिक्खजोणियपंचिक ओरा भंते ! किंसंठा०५०१, गो.! छबिहसंठाणसं० पं०, तं.---समचउससंठाणसं० जाव हुंडसंठाणसंठितेवि, एवं पञ्जत्तापजत्ताणवि ३, समुच्छिमतिरिक्खजी० पंचिक ओरा० भंते 1 किसं०५०१, गो०! हुंडसंठाणसंठिते पं०, एवं पजत्तापज्जताणवि, गब्भवकं तिरिक्ख. पंचिंदिय० ओरा० भंते ! किंसंठा०पं०१, गो० छबिहसंठाणसं०५०, तं०-समचउरंसे जार हुंडसंठा०, एवं पजत्तापजत्ताणवि ३, एवमेते तिरिक्खजोणियाणं ओहियाणं णव आलावगा, जलयरपं० तिरि० ओरा० भंते! किंसंठाणसंठिते पं०१, गो०1 छबिहसंठाणसं०५०, तं०-समचउरंसे जाव हुंडे, एवं पज्जत्तापजत्ताणवि, समुच्छिमजलयरा हुंडसंठाणसंठिता, एतेसिं चेव पज्जत्तावि अपज्जत्तगावि एवं चेव, गब्भवतियजलयरा छबिहसंठाणसंठिता, एवं पजत्तापजत्ताणवि, एवं थलयराणवि णव सुत्ताणि एवं चउपयथलयराणवि उरपरिसप्पथलयराणवि भुयपरिसप्पथलयराणवि, एवं खहयराणवि णव सुत्ताणि, नवरं सहत्य संमुच्छिमा हुंड संठाणसंठिता भाणितवा, इयरे छसुवि । मणूसपंचिंदियओरालियसरीरे णं भंते! किंसंठाणसं
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