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________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [११], ----------------- मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: एकादशज्ञातविवरणम् । ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सुत्रांक ॥१७१॥ [१०] दीप cerserseleoenesepeper अथैकादशमं विवियते-अस्य पूर्वेण सहायं सम्बन्धः-पूर्वत्र च प्रमाधप्रमादिनोर्गुणहानिवृद्धिलक्षणावनार्थायुक्ती, इह तु मार्गाराधनविराधनाभ्यां तावुच्यते इतिसम्बमिदम् जति णं भंते ! दसमस्स नायजसणस्स अयमढे एकारसमस के अ०१. एवं खल जव! तेणं कालेणं २ रायगिहे गोयमे एवं वदासी-कह णं भंते ! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति ?, गो! से जहा णामए एगंसि समुद्दकूलंसि दावद्दवा नाम रुक्खा पपणत्ता किण्हा जाव निउबभूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरेरिजमाणा सिरीए अतीव उवसोभेमाणा २ चिट्ठति, जया णं दीविचगा इंसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति तदा णं बहवे दावद्दया रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति अप्पेगतिया दाबद्दवा रुक्खा जुन्ना झोडा परिसडियपंडुपत्तपुष्फफला सुक्रुक्खओ विव मिलायमाणा २ चिट्ठति, एवामेव समणाउसो! जे अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पञ्चतिते समाणे बट्टणं समणाणं ४ सम्म सहति जाव अहियासेति बरणं अपणउत्थियाणं वहणं गिहत्थाणं नो सम्मं सहति जाब नो अहियासेति एस णं मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते समणाउसो! जया णं सामुदगा इंसिं पुरेवाया पच्छा ११दावद्वज्ञाताध्य. स्वपरोभयानुभयोक्तिसहने देशविराधनाराधनसाराधनविराधनाः सू.९० ॥१७॥ Cenenewestseenesesences अनुक्रम [१४२] अथ अध्ययनं- ११ "दावद्रव आरभ्यते ~345~
SR No.004106
Book TitleAagam 06 GYATA DHARM KATHA Moolam evam Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDeepratnasagar
Publication Year2014
Total Pages512
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size109 MB
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