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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 61 दुःख, अशांति, भय, कलह आदि तनावों से बचने के लिए जीवन का आधार भौतिकता को नहीं मानते हुए आध्यात्मिकता को मानने की आवश्यकता है। धन से क्षणभर के लिए भौतिक-सुख तो मिल जाएगा, किन्तु जीवन में शांति का अनुभव कभी नहीं हो सकेगा। उपर्यक्त विवेचन से यह तो सिद्ध हो जाता है कि अर्थ (धन) तनाव का हेतु है, किन्तु एक प्रश्न सामने आता है कि धन के अभाव में जीवन-निर्वाह कैसे करें? जीवन जीने के लिए व्यक्ति को रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा आदि मूलभूत वस्तुओं की आवश्यकता होती है, जिनके अभाव में भी व्यक्ति दुःखी या तनावग्रस्त होता है और ये वस्तुएं बिना धन के नहीं मिल सकती हैं। अतः, व्यक्ति को अपने जीवन- निर्वाह के लिए धन का अर्जन करना पड़ता है। परिस्थितियां बदलती रहती हैं, इसलिए व्यक्ति भविष्य में जीवन-निर्वाह एवं रोगादि की स्थिति में चिकित्सा के लिए धन का संचय करता है और इसी कारणवश उसका संरक्षण भी करना पड़ता है। वस्तुतः धन का अर्जन, संचय, संरक्षण आदि तनाव उत्पत्ति के हेतु ही हैं, फिर भी जीवन की सुख-सुविधा के लिए धनार्जन करना ही पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति मुनि-जीवन धारण नहीं कर सकता है, तो ऐसी स्थितियों में तनाव के कारणों का निवारण कैसे हो सकता है? तनाव प्रबंधन कैसे किया जा सकता है? इसके उत्तर में जैनदर्शन कहता है कि जीवन को अध्यात्म के साथ जीओ। यदि अर्थ को जीवन निर्वाह का साधन मात्र मानें, उस पर ममत्व बुद्धि का आरोपण न करें, तो वह धन तनाव-उत्पत्ति का कारण नहीं होगा। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आचार्य महाप्रज्ञजी ने 'महावीर का अर्थशास्त्र' नामक पुस्तक में आधुनिक अर्थशास्त्र के मुख्य तत्त्वों इच्छा, आवश्यकता व मांग में निम्न चार बातों को और जोड़ दिया है – सुविधा, वासना, विलासिता और प्रतिष्ठा। ___ व्यक्ति को अर्थ तीन बातों के लिए चाहिए-प्रथम, अपनी माँग (अनिवार्य आवश्यकता) को पूरा करने के लिए, दूसरे, अपनी प्रतिष्ठागत आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए और तीसरे, इच्छाओं को पूरा करने के लिए। तुलनात्मक दृष्टि से देखें, तो मांग (जैविक आवश्यकता) व्यक्ति पर कम दबाव डालती है, क्योंकि उसकी मांगें उतनी ही होती हैं, 106 महावीर का अर्थशास्त्र, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 17 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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