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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति धर्म का स्वरूप - धर्म के यथार्थ स्वरूप को जानने की जिज्ञासा प्रत्येक मानव में पाई जाती है। धर्म क्या है ? इस प्रश्न के अनेक उत्तर दिए गए हैं। गुरु की आज्ञा का पालन करना शिष्य का धर्म है, इसी प्रकार दुःखी एवं पीड़ितजनों की सेवा करना मनुष्य का धर्म है।. यहाँ धर्म का अर्थ दायित्व-बोध या कर्त्तव्य-बोध है। इसी प्रकार, जब हम यह कहते हैं कि मेरा धर्म जैन है, या उसका धर्म ईसाई है, तो यहाँ धर्म का अर्थ किसी सिद्धांत पर हमारी आस्था या विश्वास से होता है। वैसे तो धर्म के अनेक रूप हैं, पर तनावमुक्ति के लिए धर्म के जिस रूप को अपनाना चाहिए, वही धर्म का सही व वास्तविक रूप है। धर्म को परिभाषित करते हुए जैन-आचार्यों ने कहा है -"धम्मो वत्थुसहावो", अर्थात् वस्तु का अपना निज स्वभाव ही उसका धर्म है। वस्तु के स्वाभाविक-गुण को धर्म कहा जाता है, जैसे- आग का धर्म जलाना है, पानी का धर्म शीतलता है। स्वभाव वह है, जो अपने-आप होता है, जिसके लिए दूसरे व बाह्य-तत्त्वों की आवश्यकता नहीं होती है। जब व्यक्ति स्व-स्वभाव में होता है, तो वह शांत व तनावमुक्त अवस्था में रमण करता है। जो स्व-स्वभाव है, वही धर्म है। स्व-स्वभाव के विपरीत जो भी होता है, वह अधर्म है, पाप है, अर्थात् विभाव है। जो स्वतः होता है, वह स्वभाव है और जो दूसरें बाह्य कारणों से होता है, वह विभाव है। इसी प्रकार तनाव भी बाह्य-कारणों से या बाहरी तत्त्वों से ही होता है। व्यक्ति की यह विभाव-दशा ही तनाव की दशा है। उदाहरण के लिए, हम क्रोध व शांति को इस कसौटी पर कसते हैं। क्रोध तनाव का हेतु है एवं शांत अवस्था तनावमुक्ति की अवस्था होती है। क्रोध कभी स्वतः नहीं होता, गुस्से या क्रोध का कोई-न-कोई बाहरी निमित्त अवश्य होता है। इस आधार पर क्रोध व्यक्ति की विभाव-दशा है। धीरे-धीरे व्यक्ति का क्रोध शांत होने लगता है, क्योंकि कोई भी चौबीसों घण्टे क्रोध की स्थिति में नहीं रह सकता है। शांति के लिए उसे किसी बाह्य वस्तु की आवश्यकता नहीं होती है, वह स्वतः ही हो जाती है। व्यक्ति शांत ही रहता है, क्योंकि शांतता उसका स्वभाव है और वह क्रोधित किसी बाहरी कारण से ही होता है, जैसे- पानी का स्वभाव शीतलता है, किन्तु आग का संयोग होने से वह उष्ण हो जाता है और आग का वियोग होते ही धीरे-धीरे वह स्वतः शीतल हो जाता है। कहने का तात्पर्य यही है कि 606 कार्तिकेयानुप्रेक्षा -478 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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