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________________ 238 जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति धर्मध्यान के भी चार उपप्रकार कहे गए हैं, वे निम्न हैं - 1. आज्ञाविचय – मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कहें, तो जो पूर्णतः तनावमुक्त हैं, उनके द्वारा बताए गए तनावमुक्ति के मार्ग का चिन्तन करना आज्ञाविचय है। जैन शब्दावली में कहें, तो जो वीतरागी है, तनाव के मूल हेतु राग-द्वेष से जो पूर्णतः मुक्त है, उसके उपदेशों पर चिन्तन करना आज्ञाविचय-धर्मध्यान है। 2. अपायविचय - राग-द्वेष से जनित दुःख का एवं उनके कारणों का चिन्तन कर उनसे छुटकारा कैसे हो- इस सम्बन्ध में विचार करना अपायविचय है। 3. विपाकविचय - विपाक का अर्थ है- फल या परिणाम । जैनधर्म के अनुसार, पूर्वकर्मों के विपाक के परिणामस्वरूप उदय में आने वाली सुख-दुःखात्मक विभिन्न अनुभूतियों का समभावपूर्वक वेदन करते हुए उनके कारणों का विश्लेषण करना विपाकविचय ध्यान है। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि तनाव व तनावमुक्ति- दोनों में होने वाली मानसिक अशांति व शांति की अनुभूति करते हुए उनके परिणामों का चिन्तन करें। 4. संस्थानविचय - लोक एवं संस्थान शब्द का अर्थ आगमों में शरीर भी है व संसार भी है।482 मन का शरीर व संसार से आसक्त होकर चिन्तित होना ही तनाव है। संस्थानविचय धर्म-ध्यान में व्यक्ति शरीर व संसार की गतिविधियों से मुक्ति के लिए अपनी चित्तवृत्तियों को केन्द्रित कर नियंत्रित रखता है। धर्मध्यानी में मुख्य रूप से निम्न लक्षण पाए जाते हैं - 1. आज्ञारुचि – धर्मध्यानी व्यक्ति वीतराग प्रभु के बताए मार्ग का अनुसरण करता है, अर्थात् तनाव उत्पन्न करने वाले तत्त्वों के प्रति उदासीन भाव रखता है। 2. निसर्गरुचि - स्व-स्वभाव में रुचि होना निसर्गरुचि है। तनावग्रस्त व्यक्ति विभावदशा में होता है। धर्मध्यानी विभावदशा का त्याग कर स्व-स्वभाव में रमण करने का प्रयत्न करता है। 461 (1) स्थानांगसूत्र -4/64 (2) ध्यानशतक - 45 . जैन साधना पद्धति में ध्यान - डॉ. सागरमल जैन, प.29 स्थानांग - 4/66 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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