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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति आर्त्तध्यान के हैं, वे ही लक्षण एक तनावग्रस्त व्यक्ति में भी पाए जाते हैं। आर्त्तध्यान के लक्षण रूदन, शोक, विलाप, चिड़चिड़ाहट, चिंता आदि हैं। तनावग्रस्त व्यक्ति में भी ये ही सारे लक्षण पाए जाते हैं। वह भी दुःखी एवं चिन्तित रहता है। व्यक्ति जब इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाता, तो उसका स्वभाव चिड़चिड़ा एवं क्रोधी हो जाता है। इष्ट के वियोग पर रूदन, विलाप आदि करता है। ध्यानशतक में आर्त्तध्यान के ये ही चार लक्षण निरूपित करते हुए कहा गया है कि आर्त्तध्यानी के आक्रन्दन, शोचन, परिवेदन और ताड़न आदि लक्षण होते हैं। 447 उववाईसूत्र में भी आर्त्तध्यान के चार लक्षण बताए गए हैं- 1. कंदणया, 2. सोयणया, 3. तिप्पणया और 4. विलवणया । 234 कंदणया अर्थात् रूदन करना, सोयणया का अर्थ है- शोक करना अर्थात् चिंता करना । तिप्पणया का आशय आंसू गिराना या दुःखी होना है और विलयण से तात्पर्य विलाप करना है। · जिस व्यक्ति में उपर्युक्त चारों लक्षण पाए जाते हैं, वह आर्त्तध्यानी होता है और जो व्यक्ति आर्त्तध्यानी होता है, वह नियमतः तनावग्रस्त होता है। आर्त्तध्यानी हीन भावना से ग्रस्त रहता है। वह स्वयं अपने जीवन को तनावग्रस्त बनाता है, साथ ही, दूसरों के जीवन में भी अशांति फैलाता है। दूसरों के पास रही हुई वस्तु को या उनके सुखों को देखकर ईर्ष्या करता है। उसमें अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने की अत्यन्त तृष्णा रहती है, उसकी आकांक्षा अधिकाधिक बढ़ती जाती है और इसी में उसका जीवन पूरा हो जाता है, फिर भी उसकी तृष्णा समाप्त नहीं होती। वह दूसरों की वस्तु को प्राप्त करने के लिए शोक, विलाप, माया आदि करता है और दूसरों को भी हानि पहुँचाता है और अपनी इच्छाओं की पूर्ति को ही तनावमुक्ति की दवा समझता है। रौद्रध्यान के भेद, लक्षण व तनाव से उनका सम्बन्ध रौद्रध्यान के चार भेद कहे गए हैं448 1. हिंसानुबन्धी- रौद्रध्यान, 447 448 - Jain Education International ध्यानशतक 15 (अ) रौधे झाणे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा – हिंसाणुबन्धि, मोसाणुबन्धि, तेणाणुबन्धि, सारक्खणाणुबन्धि । - स्थानांगसूत्र - 4/1/63, पृ. 223. (ब) ध्यानशतक - श्लोक 19-22 (स) ज्ञानार्णव - 24/3 (द) हिंसाऽनृतस्तेयविषय संरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः तत्त्वार्थसूत्र 9/36 - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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