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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति किया हो और उसमें असफलता के कारण तनाव उत्पन्न हो रहा हो तो वह उस लक्ष्य के पृथक्करण, या उस लक्ष्य के परित्याग को उचित मानता है। साथ ही, वह यह भी मानता है कि व्यक्ति जीवन की असफलताओं को पूर्व नियत या पूर्व कर्मों का उदय मानकर आत्मसंतोष को प्राप्त कर लेता है, क्योंकि जैन- सिद्धांत यह मानता है कि बाह्यसफलताएँ और असफलताएँ पूर्णतः व्यक्ति के वर्तमान प्रयत्नों पर निर्भर नहीं है, उसमें उसके पूर्वबद्ध कर्म के विपाक भी महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं। जैनदर्शन विस्थापन, प्रत्यावर्तन, दमन आदि अपरोक्ष मनोवैज्ञानिकविधियों को समुचित नहीं मानता है। वह दमन के स्थान पर निराकरण को ही अधिक उचित मानता है, क्योंकि उसके अनुसार, तनावों से मुक्ति का सम्यक् उपाय वासनाओं का निराकरण ही है । आत्म-परिशोधनः विभावदशा का परित्याग 222 जैनदर्शन भारतीय - श्रमण परम्परा का एक अंग है और भारतीय श्रमण-धारा - मूलतः आध्यात्मिक - जीवनदृष्टि की प्रतिपादक है। जब हम अध्यात्म या आध्यात्मिक - जीवनदृष्टि की बात करते हैं, तो उसका अर्थ होता है- भौतिक तथ्यों की अपेक्षा आत्मा' को महत्व देने वाली जीवनदृष्टि । दूसरे शब्दों में, इसका अर्थ यह हुआ कि आध्यत्मिक - जीवनदृष्टि भौतिक जीवनदृष्टि से भिन्न होकर आध्यात्मिकमूल्यों या आत्मतत्त्व को प्रधानता देती है । उत्तराध्ययनसूत्र में जीवात्मा के दो भेद किए हैं- 1. संसारी और 2. सिद्ध । यहाँ आत्मा की कर्मों से रहित विशुद्ध दशा को ही सिद्धावस्था या मुक्तावस्था कहा गया है। इसे स्वभावदशा भी कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें आत्मा अपने निज शुद्ध स्वरूप में स्थित रहती है। इसके विपरीत, संसारी - आत्मा को कर्मों से युक्त होने के कारण विभाव - दशा में माना गया है। यद्यपि संसारस्थ जीवन्मुक्त या क्षीणकषाय सयोगीकेवली एवं अयोगी - केवली भी विभावमुक्त माने जाते हैं। आत्मा का कर्मों के उदय से प्रभावित होकर मोहदशा में रहना ही विभावदशा है । साधना के सारे प्रयत्न विभावदशा से स्वभावदशा में आने के लिए होते हैं। विभाव विकृति है और स्वभाव प्रकृति है। विकृति को समाप्त करके ही स्वभाव में आया जा सकता है। जैनदर्शन यह मानता है कि जब तक आत्मा विभावदशा में है, अर्थात् दसवें गुणस्थान में भी सूक्ष्म लोभ से ग्रसित है, वह तनावयुक्त है। जैनदर्शन में तनावों से मुक्त होने की प्रक्रिया को ही मुक्ति का साधन कहा गया है। आत्मा जब तक कर्म Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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