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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 535 परिचायक है। इस पर विजय पाने हेतु जैन-दर्शन में ब्रह्मचर्य की साधना को मुक्ति का सोपान बताया गया है। यह बात ठीक है कि मैथुन-संज्ञा के बिना संसार नहीं चल सकता, इसीलिए इसे पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता, परन्तु इस सम्बन्ध में भी विवेक अतिआवश्यक है। यदि कामवासनाओं पर विवेक की लगाम न लगाई जाए, तो सम्पूर्ण समाज-व्यवस्था खतरे में पड़ सकती है। प्रस्तुत चतुर्थ अध्याय में हमने कामवासना सम्बन्धी विकारों को विवेक की तराजू में तोलने का प्रयास किया है, साथ ही कामवासना के जय की प्रक्रिया और ब्रह्मचर्य की साधना के महत्त्व को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है तथा यह दिखाने का प्रयास किया है कि कामवासना का निरसन कैसे संभव है। शोधप्रबंध का पंचम अध्याय परिग्रह-संज्ञा के विवेचन से सम्बन्धित है। लोभ मोहनीय-कर्म के उदय से सचित्त व अचित्त द्रव्य का संचय करने की वृत्ति परिग्रह-संज्ञा है। प्राणी की संचयात्मक वृत्ति के कारण इसकी उत्पत्ति के चार प्रकार बताए हैं - 1. संचय करने की वृत्ति से, 2. लोभ-मोहनीय कर्म के उदय से, 3. अर्थ सम्बन्धी कथा सुनने से, 4. परिग्रह सम्बन्धी विचार करने से। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि 'मूर्छा परिग्रह है। वस्तुतः, संचय में गाढ़ आसक्ति परिग्रह-संज्ञा है। परिग्रह दो प्रकार का बताया गया है - 1. बाह्य, 2. आभ्यन्तर। प्रस्तुत शोध में परिग्रह के स्वरूप एवं लक्षण की चर्चा तो की ही गई है, साथ ही संचय-वृत्ति से होने वाले दुष्परिणामों को भी दर्शाया गया है। समाज में संचय-वृत्ति को लेकर जो आपा-धापी या अराजकता फैली हुई है, उसका निराकरण कैसे सम्भव है, यह दिखाने का प्रयास किया गया है, साथ ही महात्मा गांधी का ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त कितना सार्थक हो सकता है और मानव-जीवन में ममत्व-वृत्ति का त्याग एवं समत्व-वृत्ति का विकास कैसे संभव हो सकता है, इस दिशा में चिन्तन किया गया है। . . शोध-प्रबन्ध का षष्ठ अध्याय क्रोध-संज्ञा के विवेचन से सम्बन्धित है। क्रोध-संज्ञा मानसिक-मनोविकार तो है ही, किन्तु उत्तेजक आवेग भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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