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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 475 सम्यकचारित्र से भी पतित हो जाता है। समाज में व्याप्त चोरी, डकैती, जमाखोरी, क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा आदि सभी बुराइयाँ मम् (मेरे) और अहम् (मैं) के पोषण के कारण ही उत्पन्न होती हैं। जब तक व्यक्ति में मोह है, स्वार्थ है, ममत्व है, तब तक बंधन निश्चित रूप से है, अर्थात् मोह है, तो मोक्ष नहीं है। जैनदर्शन के मूलमंत्र 'नमस्कारमंत्र' 1119 के प्रथम शब्द 'नमो' का अर्थ वस्तुतः नमन्, नमस्कार या प्रणाम करते हैं, पर प्रस्तुत प्रसंग में हम 'नमो' शब्द का अर्थ न+मो(ह) अर्थात् 'मोह नहीं -ऐसा भी कर सकते हैं। मंत्र का प्रथम शब्द यही दर्शाता है कि यदि मोह नहीं होगा, तो व्यक्ति साधना के माध्यम से अपनी आत्मा का उत्थान कर मोक्ष प्राप्त कर सकेगा। मोह के दुष्परिणाम - 1. कर्मबंधन का प्रमुख कारण मोह - जैन-परम्परा में बन्धन के मूलभूत तीन कारण राग, द्वेष और मोह माने गए हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में राग और द्वेष - इन दोनों को कर्म-बीज कहा गया है1120 और उन दोनों का कारण मोह बताया गया है। यद्यपि राग और द्वेष साथ-साथ रहते हैं, फिर भी उनमें राग ही प्रमुख है। राग के कारण ही द्वेष होता है। वस्तुतः, राग मोह का ही रूप है। जैन-कथानकों के अनुसार, इन्द्रभूति गौतम का महावीर के प्रति प्रशस्त राग भी उनके कैवल्य की उपलब्धि में बाधक रहा था। इस प्रकार, मोहजन्य राग ही बन्धन का प्रमुख कारण है। आचार्य कुन्दकुन्द राग को प्रमुख कारण मानते हुए कहते हैं -रागयुक्त आत्मा ही कर्म-बन्ध करता है और राग से विमुक्त मुक्त हो जाता है -यही जिनेश्वर परमात्मा का उपदेश है, इसलिए आसक्ति या रागभाव मत रखो। 127 यदि राग का कारण जानना चाहें, तो जैन-परम्परा के अनुसार मोह ही इसका कारण सिद्ध होता है, यद्यपि मोह और राग-द्वेष सापेक्ष रूप में एक-दूसरे के कारण बनते हैं। इस प्रकार, द्वेष का कारण राग और राग का कारण मोह 1119 1120 भगवतीसूत्र -- 1 1) उत्तराध्ययनसूत्र- 32/7 2) जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ.सागरमलजैन, भाग 1, पृ. 361. 1121 समयसार, 157 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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