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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 928 है। इसी प्रकार, मनुष्य भी कर्म इसलिए ही करता है कि उसे सुख प्राप्त हो । बिना सुख मिले कोई कर्म नहीं करता, बल्कि सुख मिलने पर ही करता है, अतः सुख की ही विशेष रूप से जिज्ञासा करनी चाहिए । सुखवाद के अनुसार, कर्म का साध्य सुख की प्राप्ति अथवा तृप्ति है। वही कर्म शुभ है, जो हमारी इन्द्रियपरता (वासनाओं) को संतुष्ट करता है। वह कर्म अशुभ है, जिससे वासनाओं की पूर्ति अथवा सुख की प्राप्ति नहीं होती। सुखवाद के अनुसार, सुख ही परम मंगल है, सुख ही जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है, क्योंकि दुःख से सभी उद्विग्न होते हैं और सुख सभी को अभीष्ट है। ,929 चाणक्य-नीति में भी कहा है - " प्रत्येक मनुष्य को अपने सभी कर्मों का लक्ष्य केवल अधिक-से-अधिक सुख के उपभोग को बनाना चाहिए। सुख का तात्पर्य वर्त्तमान क्षण का सुख है; अतीत और अनागत सुख नहीं । चार्वाक भी सुखवादी हैं, उनका कहना है- जब तक जीवन है, तब तक सुख से जीना चाहिए, ऋण लेकर घी पीना चाहिए, क्योंकि मृत्यु के बाद फिर शरीर न रहेगा और इस कारण उपभोग के अवसर नहीं मिलेंगे। 1 यजुर्वेद के शान्तिपाठ में कहा गया है – सभी सुखी हों, सभी निरोग हों, सभी शुभ का दर्शन करें और कोई दुःखी न हो ।' जैन - आचारदर्शन भी यह मानता है कि समस्त प्राणीवर्ग स्वभाव से ही सुखाभिलाषी हैं। दशवैकालिकसूत्र स्पष्ट रूप से प्राणीवर्ग को परम (सुख) धर्मी मानता है। 933 टीकाकारों ने परम शब्द का अर्थ सुख करते हुए इस प्रकार व्याख्या की है "पृथ्वी आदि स्थावर प्राणी और द्वीन्द्रिय आदि त्रस–प्राणी –इस प्रकार सर्व प्राणी 'परम' अर्थात् सुखधर्मी हैं, सुखाभिलाषी हैं । सुख की अभिलाषा करना प्राणियों का नैसर्गिक स्वभाव है। 930 931 932 934 424 928 यदा वै सुखं लभतेऽथ करोति नासुखं लब्धवा करोति सुखमेव लव्हवा करोति सुखं त्वेव विजिज्ञासितव्यमिति । - छान्दोग्य उपनिषद् - 7/22/1 दुःखादुद्विजते सर्वः सर्वस्य सुखमीप्सितम् । - महाभारत शान्तिपर्व - 13 930 गते शोको न कर्त्तव्यो भविष्यं नैवं चिन्तयेत् । 929 -139/69 वर्तमान कालेन वर्तयन्ति विचक्षणाः । । - चाणक्यनीति- 13 / 2 931 932 सर्वे सन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्रानि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् । । - यजुर्वेद, शान्तिपाठ सव्वेपाणा परमाहम्मिआ - दशवैकालिकसूत्र - 4 / 9 दशवैकालिक टीका, पृ. 46 933 यावज्जीवं सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः । । 934 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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