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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 361 2. मान-विजय के लिए निरंतर यह चिंतन करते रहना चाहिए कि कार्यसिद्धि छल-प्रपंच से नहीं, पुण्योदय से होती है। असफलता का योग होने पर छल और माया भी सिद्धि में सहायक नहीं बनते। 3. व्यवहार में दूसरों को ठगना निश्चय में अपने-आपको ठगना है- ऐसा विचार बार-बार करते रहना चाहिए। 4. सच्चाई और सरलता मानव-जीवन का सार है- यह समझकर जीवन में इनका आचरण करना चाहिए। ___5. छिपकर किए जाने वाले पाप सर्वज्ञ तो जानते ही हैं, प्रकृति भी उसका बदला लेती है, यह सोचकर माया के पापों से बचना चाहिए। 6. प्रतिदिन शाम को दिन भर में की गई प्रवृत्तियों में कहाँ-कहाँ, कितनी-कितनी माया, दिखावा, ठगाई, प्रवंचना आदि का सेवन किया, उसको याद कर भविष्य में ऐसा न करने का दृढ़ संकल्प करना चाहिए। 7. माया और असत्य एक सिक्के के दो पहलू हैं। सरल व्यक्ति को असत्य का आश्रय नहीं लेना पड़ता, गढ़े-गढ़ाए, बने-बनाए को याद नहीं रखना पड़ता। सरल आदमी तनाव में नहीं, अपितु मस्ती में जीता है। 8. कभी-कभी मायावी व्यक्ति अपने ही शब्द-जाल में फँस जाता है, इसलिए कपट-प्रवृत्ति को छोड़कर सीधे-सरल शब्दों का प्रयोग करने का प्रयास करना चाहिए। 9. यह विचार करना चाहिए कि माया-कषाय अनन्त दुःखों का कारण है, तिर्यंच-गति का हेतु है। 68 10. मायावी पुरुष यद्यपि अपराध नहीं करता, तथापि वह अपने मायावी स्वभाव के दोष के कारण सर्प के समान प्रत्येक के लिए अविश्वसनीय होता है, इसलिए माया का प्रतिपक्ष धर्म सरलता धर्म है, जो कि अमृत के समान कहा गया है। 769 जगत् के लोगों के लिए 768 माया तिर्यग्योनस्य - तत्त्वार्थसूत्र, अ. 6, सूत्र 17 तदार्जवमहौषध्या जगदान जयेज्जगदद्रोहकरी मायां विषधरीमिव ।। -योगशास्त्र-4/17 इतना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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