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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 27 ज्ञानार्थ में परिभाषित किया गया है। इस प्रसंग में संज्ञा को ऊहापोह या विमर्शात्मक भी माना गया है। दूसरी ओर, उसे अर्थग्राहक-चेतना मानकर अभिलाषा, आकांक्षा, इच्छा आदि के रूप में परिभाषित किया गया है। वस्तुतः, यदि हम देखें, तो जैन आगमों में 'संज्ञा' शब्द इन्हीं दो अर्थों में ही प्रचलित रहा है - 1. अव्यक्त इच्छा और 2. विवेक-क्षमता। आचारांगसूत्र में कहा गया है - __ सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं - इहमेगेसिणो सण्णा भवई। यहाँ भगवान् ने यह बताया है कि संसार में कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्हें संज्ञा अर्थात् विवेक-शक्ति नहीं होती, यहाँ भगवान् ने संज्ञा (सण्णा) शब्द विवेक और ज्ञान के रूप में प्रयोग किया है, क्योंकि इसी क्रम में आगे बताया है कि व्यक्ति यह नहीं जानता है कि - • मैं कौन हूँ ? • पूर्वादि किस दिशा से आया हूँ ? • यहाँ से मरकर कहाँ जाऊंगा ? आदि । यहाँ संज्ञा शब्द वस्तुतः ज्ञान या विवेक-शक्ति का ही सूचक है। यहाँ 'इहमेगेसिं णो सण्णा भवति' का अर्थ इच्छा या अभिलाषा नहीं, क्योंकि जैन-परम्परा यह मानती है कि प्रत्येक संसारी-जीव में आहार आदि की अभिलाषा पाई जाती है। अभिधानराजेन्द्रकोश में भाव संज्ञा के दो रूप बताए गए हैं - 1. अनुभावन संज्ञा। 2. ज्ञानस्वरूप संज्ञा। मनोविज्ञान में जिसे self consciousness या self awareness कहते हैं, उसे ही जैन-परम्परा में संज्ञा के रूप में प्रयुक्त किया गया है, लेकिन संज्ञा के इस अनुभवात्मक या ज्ञानात्मक-अर्थ के अलावा प्राणीय-व्यवहार के प्रेरक के रूप में उसका अभिलाषा, इच्छा, 10 आचारांगसूत्र -1/1/1/1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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