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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 295 मुनि ने अपनी भूल के प्रायश्चित्त में अनशन धारण किया। क्रोध के प्रति ही क्रोध हो - वह संज्वलन-क्रोध है। याज्ञवल्क्योपनिषद् में भी इसी बात की पुष्टि की है - यदि तू अपकार करने वाले पर क्रोध करता है, तो क्रोध पर ही क्रोध क्यों नहीं करता? जो सबसे अधिक अपकार करने वाला है।590 बौद्धदर्शन में क्रोध के तीन प्रकार91 - बौद्धदर्शन में भी क्रोध को लेकर व्यक्तियों के तीन प्रकार माने गए हैं - 1. वे व्यक्ति, जिनका क्रोध पर्वत पर खींची हुई रेखा के समान चिरस्थायी होता है। 2. वे व्यक्ति, जिनका क्रोध पृथ्वी पर खींची रेखा के समान अल्प-स्थायी होता है। 3. वे व्यक्ति, जिनका क्रोध पानी पर खींची रेखा के समान अस्थायी होता है। क्रोध की चार अवस्थाएं - स्थानांगसूत्र93 और प्रज्ञापनासूत्र594 में क्रोध की चार अवस्थाओं का उल्लेख है- (1) आभोगनिवर्तित, (2) अनाभोगनिवर्तित, (3) उपशान्त, (4) अनुपशान्त। 1. आभोगनिवर्तित-क्रोध - स्थानांगसूत्र के वृत्तिकार अभयदेवसरि ने आभोग का अर्थ ज्ञान किया है।995 जो मनुष्य क्रोध के विपाक या दुष्परिणामों को जानते हुए भी क्रोध करता है, उसका क्रोध आभोगनिवर्तित-क्रोध कहलाता है। 590 अपकारिणि कोपश्चेत्कोपे कोपः कथं न ते ? – याज्ञवल्क्योपनिषद्, 29 591 जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों पर तुलनात्मक अध्ययन, भाग-1, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 501 592 अंगुत्तरनिकाय- 3/130 595 स्थानांगसूत्र - 4. उ 1, सूत्र 88 चउविहे कोहे पण्णते, तं जहा - 1.आभोगणिव्वत्तिए. 2.अणाभोगणिव्वतिए, 3. उवसंते, 4. अणुवसंते। - प्रज्ञापनासूत्र, पद 14, सूत्र 962-93 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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