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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 243 अर्थ-संग्रह करता है,453 इसलिए आर्थिक क्षेत्र में अपहरण, शोषण और संग्रह की जो बुराइयाँ पनपती हैं, वे सब मूलतः आसक्ति से प्रत्युत्पन्न हैं। गीता में कहा है कि आसक्ति (इच्छा) और लोभ (परिग्रह) नरक के कारण हैं। काम-भोगों में आसक्त मनुष्य ही नरक और अशुभ योनियों में जन्म लेता है।454 श्रीकृष्ण कहते हैं -हे अर्जुन! तू कर्मों के फल में रही हुई आसक्ति का त्याग कर निष्काम भाव से कर्म कर। पुराणों में भी परिग्रह का मूल कारण ममत्वबुद्धि को माना है। ‘परि समन्तात् मोहबुद्धया गृह्यते यः स परिग्रहः', अर्थात् मोह (ममत्व) बुद्धि के द्वारा जो पदार्थ का ग्रहण किया जाए, वह परिग्रह है।456 पातंजल योगसूत्र457 में अपरिग्रह को पांचवें यम के रूप में स्वीकार किया गया है। कहा है कि परिग्रह का मूल कारण ममत्व, आसक्ति या तृष्णा है। परिग्रह या वस्तुओं का संग्रह व्यक्ति विषय-भोग हेतु करता है। चूंकि भोगों की पूर्ति पदार्थों से होती है, अतः भोगाकांक्षी को संसार में जन्म लेना आवश्यक होता है। संसार में वही जन्म लेता है, जिसमें सांसारिक भोगों की कामना है। अभिप्राय यह है कि परिग्रह भोगेच्छाओं का द्योतक है और भोगेच्छाएँ संसार में जन्म लेने का कारण हैं। 458 यह उक्ति प्रसिद्ध है -'न तृष्णायाः परो व्याधि न संतोषात्परं सुखम्', अर्थात् तृष्णा से बड़ी कोई व्याधि नहीं एवं संतोष से बड़ा कोई सुख नहीं। तृष्णा द्रौपदी के चीर के समान है, जो छोड़ने के बाद ही समाप्त होती है। यह बिना पाल के तालाब जैसी है, जिसमें कितना भी पानी आ जाए वह भरता नहीं है। परिग्रह का मूल मोह है, आसक्ति है। बाह्य-परिग्रह कभी भी बाधक नहीं होता, यदि मोह क्षीण हो जाता है, तो व्यक्ति के लिए परिग्रह कोई महत्त्व नहीं रखता, इसलिए कहा गया है -"जिस वृक्ष की जड़ सूख गई हो, उसे कितना ही सींचिए, वह हरा-भरा नहीं होता। मोह के क्षीण होने पर कर्मवृक्ष फिर से हरा-भरा नहीं होता है। मूल को सींचने पर ही फल लगते हैं, मूल नष्ट होने पर फल भी नष्ट हो जाते हैं। 459 453 गीता- 16/12 454 वही- 16/16 455 वही- 16/16 456 पुराणों में जैनधर्म, साध्वी डॉ. चरणप्रभा, पृ. 138 457 अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः । – पातंजलयोगसूत्र -2/30 458 अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्ता संबोधः । – वही- 2/39 459 सुक्क मूले जहा रूक्खे, सिच्चमाणे ण रोहति । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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