SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 239 करने की इच्छा जाग्रत होती है। मनुष्य के मन एवं मस्तिष्क में निरन्तर विचारों का क्रम चलता रहता है। व्यक्ति के विचार ही उसके कार्य के रूप में परिणत होते हैं। मन में यदि भविष्य में उपभोग के लिए वस्तु-संचय का विचार चल रहा है, तो निश्चित रूप से वह संचय करने का प्रयास करेगा और अपने परिग्रह को बढ़ाएगा। अतः, जैनदर्शन का कहना है कि मनुष्य को आवश्यकता से अधिक की संचयवृत्ति से बचना चाहिए। परिग्रह का स्वरूप एवं लक्षण - प्रश्नव्याकरणसूत्र के टीकाकार433 ने परिग्रह की व्याख्या करते हुए लिखा है -जो पूर्ण रूप से ग्रहण किया जाता है, वह परिग्रह है। पूर्ण रूप से ग्रहण करने का अर्थ है-ममत्वबुद्धि से ग्रहण करना। वास्तविक दृष्टि से तो परिग्रह आसक्ति, ममत्वबुद्धि या मूर्छा है। मूर्छा का अर्थ है -किसी भी वस्तु के प्रति ममत्व का भाव। यह ममत्व की चेतना रागवश होती है और इसी चेतना के कारण अर्जन, संग्रह आदि के लिए प्राणी प्रयत्नशील रहता है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार, समग्र संसारी-जीवों के दुःखों का मूल कारण तृष्णा है। जिसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है, उसका मोह भी समाप्त हो जाता है और जिसका मोह समाप्त हो जाता है, उसके दुःख भी समाप्त हो जाते हैं। मूर्छा या तृष्णा ही परिग्रह है। तृष्णा का ही दूसरा रूप लोभ है और लोभ को ही सर्वगुणों का विनाशक कहा गया है। इस प्रकार, लोभमोहनीय-कर्म-फल-चेतना या तृष्णा के कारण ही परिग्रह-संज्ञा उत्पन्न होती है। उत्तराध्ययनसूत्र में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यदि सोने और चांदी के कैलाश पर्वत के समान असंख्य पर्वत भी खड़े कर दिए जाएं, तो भी यह दुष्पूर्य तृष्णा शांत नहीं हो सकती है। चूंकि धन चाहे कितना भी हो, वह सीमित है और तृष्णा अनन्त-असीम है, अतः सीमित साधनों से इस असीम तृष्णा की पूर्ति नहीं की जा सकती।437 यदि हम अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें, तो जैन-दार्शनिकों की दृष्टि में तृष्णा या 433 परिसामस्तयेन ग्रहणं परिग्रहण .....मूच्छविशेन परिग्रह्यते आत्मभावेन ममेति बुद्धया ग्रह्यते इति परिग्रहः । - प्रश्नव्याकरणवृत्ति 215 454 मुच्छा परिग्गहो वुत्तो। -दशवैकालिकसूत्र-6/20 457 उत्तराध्ययनसूत्र - 32/8 436 लोहो सव्वविणासणो। - वही उत्तराध्ययनसूत्र -9/48 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy