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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 233 अध्याय-5 परिग्रह-संज्ञा {Instinct of appropriation} "परिग्रह' शब्द परि+ग्रहण से मिलकर बना है। 'परि शब्द का अर्थ विपुल मात्रा में या पूर्णतः और ग्रहण का अर्थ प्राप्त करना, संग्रह करना आदि है, अतः परिग्रह शब्द का विस्तृत अर्थ विपुल मात्रा में वस्तुओं का संग्रह करने से है, या उन पर पूर्णतया अपने स्वामित्व का आरोपण करने से है। 'परिग्रहणं वा परिग्रहः',418 अर्थात् परिग्रहण ही परिग्रह है। परिग्रह का एक अर्थ विषयासक्ति या संसार के समस्त विषयों के प्रति राग भाव तथा ममत्व रखना भी है। जैनदर्शन के अनुसार, लोभ मोहनीयकर्म के उदय से संसार के कारणभूत सचिताचित पदार्थों को आसक्तिपूर्वक ग्रहण करने की अभिलाषारूप क्रिया को परिग्रह-संज्ञा कहते हैं।19 पदार्थ असीम हैं और इच्छाएं या आकांक्षाएँ भी आकाश के समान असीम हैं।420 जिस प्रकार विराट सागर में प्रतिपल जलतरंगें तरंगित होती हैं, एक जलतरंग विलीन होती है, तो दूसरी जलतरंग उठ जाती है, यही स्थिति इच्छा तृष्णा की भी है। मानव-मन में निरंतर तृष्णा या इच्छा-रूपी तरंगें उठती ही रहती हैं। एक इच्छा की पूर्ति होने पर दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है। दूसरी इच्छा पूर्ण होने पर तीसरी इच्छा उद्भूत हो जाती है। इस प्रकार, इच्छाओं का कहीं अन्त नहीं है, इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा है -"यदि मानव को कैलाश पर्वत के सदृश चमचमाते स्वर्ण और चाँदी के असंख्य पर्वत भी प्राप्त हो जाएं, तो भी उसकी तृष्णा या विषयों की प्राप्ति के प्रति आसक्ति शान्त नहीं होती है।421 कहा भी गया है'जहा लाहो, तहा लोहो' अर्थात् ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है, त्यों-त्यों 418 अभिधानराजेन्द्रकोश, प्राकृत/संस्कृत भाग-5, पृ. 552 419 लोभोदयात्प्रधान भवकारणाभिएवंड्गपूर्विका सचित्तेतरदव्योपादानक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति परिग्रह संज्ञा। - प्रज्ञापनासूत्र - 8/725 420 इच्छा हु आगाससमा अणंतिया -- उत्तराध्ययनसूत्र - 9/48 1) प्रश्नव्याकरणसूत्र - 5/93 2) सुवण्ण-रूपस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंख्या नरस्स लद्दस्स न तेहि किंचि.......| - उत्तराध्ययनसूत्र -9/48 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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