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________________ 166 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 'परिचारणा' 245 कहते हैं। शास्त्र में पाँच प्रकार की परिचारणा का वर्णन मिलता है। काय-परिचारणा, रूप-परिचारणा, मनः-परिचारणा। 2. 4. स्पर्श-परिचारणा, शब्द-परिचारणा, 5. देवों में पांचों प्रकार की परिचारणा मिलती है। भवनपति से लेकर ईशानकल्प के देव काय-परिचारक होते हैं। सनत्कुमार और महेन्द्रकल्प के देव स्पर्शपरिचारक, ब्रह्मलोक एवं वान्तकं के देव रूप-परिचारक होते हैं। महाशुक्र एवं सहसारकल्प के देव शब्द-परिचारक तथा आनत, प्राणत, आरण व अच्युतकल्पों के देव मन-परिचारक होते हैं। नौ ग्रैवेयक एवं पांच अनुत्तर-विमान के देव मैथुन-प्रवृत्ति से रहित होते हैं। वस्तुतः, नैरयिक मैथुन–क्रिया को प्राप्त नहीं होते, क्योंकि वे नपुंसक होते हैं। नपुंसक जीव भी अब्रह्म (भाव-मैथुन) का सेवन करते हैं, किन्तु मैथुन-क्रिया से रहित होते हैं। तत्त्वार्थसत्र में उमास्वाति46 कहते हैं कि बारहवें स्वर्ग से ऊपर के देव शान्त और काम-लालसा से परे होते हैं। उन्हें देवियों के स्पर्श, रूप, शब्द या चिन्तन द्वारा काम-सुख भोगने की अपेक्षा नहीं रहती, फिर भी वे नीचे के देवों से अधिक सन्तुष्ट और अधिक सुखी होते हैं। इसका स्पष्ट कारण यह है कि ज्यों-ज्यों काम-वासना प्रबल होती है, त्यों-त्यों चित्त-संक्लेश अधिक बढ़ता है और निवारण के लिए विषयभोग भी अधिकाधिक आवश्यक होता है। ज्यों-ज्यों नीचे से ऊपर देवलोक की ओर जाते हैं, चित्त-संक्लेश भी कम होता जाता है। उनके कामभोग के साधन भी अल्प होते हैं और बारहवें देवलोक के ऊपर के देवों की कामवासना शान्त होती है, अतः उन्हें काय, स्पर्श, रूप, शब्द, चिन्तन आदि किसी भी प्रकार के भोग की कामना नहीं होती है। वे संतोषजन्य परमसुख में निमग्न 245 क) स्थानांगसूत्र - 5/402 ख) प्रज्ञापनासूत्र - 4/34, 2051, 2052 246 1) कायप्रवीचारा आ ऐशानात् मत्त्वार्थसूत्र -4/8 ___2) शेषाः स्पर्शरुपशब्दमनः प्रवीचारादृयोद्योः – वही- 4/9 ___3) परेऽप्रवीचाराः - वही-4/10 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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