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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 143 4. मैथुनविरमण-व्रत - __ मैथुन का मतलब है – दो का योग या दो का निकाय। सभी अपने एकाकीपन से डरते हैं, इसीलिए साथी बनाने के लिए लालायित रहते हैं। व्यक्ति साथी को पाकर काल्पनिक आश्वासन प्राप्त करता है, जबकि दूसरा व्यक्ति, चाहे स्त्री हो या पुरुष, अपने एकाकीपन से भयभीत होने के कारण ही संबंध बनाता है। सारे रिश्ते-नाते, भीड़ एकत्रित करना - ये सब डर के कारण ही होते हैं। अपने चारों और भीड़ को देखकर खुश होना भी एकाकीपन के भय का ही एक रूप है, भयग्रस्त मानसिकता का प्रतीक है। जो अभय है, वही अकेला रह सकता है। जो अभय है, वही ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकता है। आचारांग में कहा है - जो साधक कामनाओं को पार गए हैं, वस्तुतः वे ही मुक्त पुरुष हैं। 199 संसार का सारा अब्रह्मचर्य डर के कारण है, पर-पासंड में रमण ही डर के कारण है, अतः एक डर को जानने और उससे मुक्त होने के लिए ही भगवान् ने मैथुन-व्रत की साधना साधकों को प्रदान की। मैथुन-विरमण के द्वारा साधक धीरे-धीरे अपने यथार्थ एकाकी स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर पाता है और एक बार यदि वह अपने एकाकीपन में रमण कर पाए, तो फिर भय रहा ही कहाँ ? निज आनन्द का अनुभव उसे समस्त भयों से मुक्त कर देता है। 5. परिग्रहविरमण-व्रत - __ परिग्रह, अर्थात् संग्रह की वृत्ति। संग्रह की सारी दौड़ भय के कारण है। आदमी सुरक्षा चाहता है और इसलिए सुरक्षा के साधन एकत्रित करता है, संग्रह करता है। यह संग्रहवृत्ति भविष्य की असुरक्षा के भय से ही पैदा होती है। चाहे वह संग्रह जीवों का हो अथवा अजीवों का, व्यक्तियों का हो अथवा वस्तुओं का, भयजन्य ही है। इन्सान संतान उत्पन्न भी इस भावना से आक्रान्त होकर करता है कि कल यह बालक बड़ा होकर मेरी सेवा करेगा, मेरे वंश को बनाए रखेगा, मेरा नाम यश बढ़ाएगा। वस्तुओं के संग्रह की सारी प्रतिस्पर्धा अस्मिता की भावना से ही होती है। संग्रह की भावना भय से ही पैदा होती है। व्यक्ति बाहर गया और ध्यान आया कि कमरे को तो ताला ही नहीं लगाया है, या आलमारी खुली रह गयी है, तो वह बीच रास्ते से ही लौट आता है। कहीं कोई चोरी न हो जाए, कोई कुछ न ले जाए। यहाँ 'पर' के ममत्व के कारण ही वह भयभीत हो जाता 199 विमुक्ता हु ते जणा, जे जणा पारगामिओ। - आचारांग- 1/2/2 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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