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________________ पन्द्रहवां इन्द्रिय पद - प्रथम उद्देशक - आहार द्वार जाणंति, पासंति, आहारेंति, से एएणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - ' अत्थेगइया ण जाणंति पासंति, आहारेंति, अत्थेगइया जाणंति, पासंति, आहारेंति ।' वाणमंतर जोइसिया जहा णेरइया ॥ ४४१ ॥ Jain Education International कठिन शब्दार्थ - सणभूया संज्ञीभूत, उवउत्ता - उपयुक्त (उपयोग वाले), अणवउत्ता - अनुपयुक्त - उपयोग रहित । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि कोई-कोई मनुष्य उनको जानते हैं देखते हैं और उनका आहार करते हैं और कोई-कोई मनुष्य नहीं जानते, नहीं देखते किन्तु आहार करते हैं ? - ४९ 0000000000000 उत्तर - हे गौतम! मनुष्य दो प्रकार के कहे गए हैं यथा संज्ञीभूत (विशिष्ट अवधिज्ञानी) और असंज्ञीभूत (विशिष्ट अवधिज्ञान से रहित) उनमें से जो असंज्ञीभूत हैं, वे उन चरम निर्जरा पुद्गलों को नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं । उनमें से जो संज्ञीभूत हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं। उपयोग से युक्त और अनुपयुक्त - उपयोग से रहित । उनमें से जो उपयोग रहित हैं, वे नहीं जानते है, नहीं देखते है, किन्तु आहार करते हैं। उनमें से जो उपयोग से युक्त हैं, वे जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं। इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि कोई-कोई मनुष्य नहीं जानते, नहीं देखते किन्तु आहार करते हैं और कोई-कोई मनुष्य जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं। वाणव्यंतर और ज्योतिष्क देवों से सम्बन्धित वक्तव्यता नैरयिकों की वक्तव्यता के समान जानना चाहिए। विवेचन - यहाँ संज्ञीभूत का अर्थ है वे अवधिज्ञानी मनुष्य जिनका अवधिज्ञान कार्मण पुद्गलों को जान सकता है। जो मनुष्य इस प्रकार के अवधिज्ञान से रहित हों, वे असंज्ञीभूत कहलाते हैं। संज्ञीभूत मनुष्यों में भी जो उपयोग लगाये हुए होते हैं वे ही उन पुद्गलों को जानते हुए और देखते हुए उनका आहार करते हैं शेष असंज्ञीभूत तथा उपयोग रहित संज्ञीभूत मनुष्य उन पुद्गलों को जान नहीं पाते और नहीं देख पाते हैं, केवल उनका आहार करते हैं। वेमाणियाणं भंते! ते णिज्जरा पोग्गले किं जाणंति पासंति आहारेंति ? गोमा ! जहा मणुस्सा । णवरं वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता । तं जहा माई मिच्छदिट्ठी उववण्णगा य अमाई सम्मदिट्ठी उववण्णगा य । तत्थ णं जे ते माई मिच्छदिट्ठी उववण्णगा ते णं ण जाणंति, ण पासंति, आहारेंति, तत्थ णं जे ते अमाई सम्मदिट्ठी उववण्णगा ते दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - अणंतरोववण्णगा य परंपरोववण्णा For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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