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________________ पन्द्रहवां इन्द्रिय पद-प्रथम उद्देशक - स्पृष्ट-प्रविष्ट द्वार ४१ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन बेइन्द्रियों की जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश गुरु गुणों तथा मृदु लघु गुणों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? ___ उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े बेइन्द्रियों के जिह्वेन्द्रिय के कर्कश-गुरु गुण हैं, उनसे स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश गुरु गुण अनन्त गुणा हैं। स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश गुरु गुणों से मृदु लघु गुण अनन्त गुणा हैं और उससे भी जिह्वेन्द्रिय के मृदु-लघु गुण अनन्त गुणा हैं। इसी प्रकार बेइन्द्रियों, तेइन्द्रियों और चउरिन्द्रियों के संस्थान, बाहल्य, पृथुत्व, प्रदेश, अवगाहना और अल्प-बहुत्व के संस्थानादि के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि उत्तरोत्तर एक-एक इन्द्रिय की परिवृद्धि करनी चाहिए। तेइन्द्रिय जीवों की घ्राणेन्द्रिय थोड़ी होती है, इसी प्रकार चउरिन्द्रिय जीवों की चक्षुरिन्द्रिय थोड़ी होती है। शेष सब वक्तव्यता उसी तरह पूर्ववत् बेइन्द्रियों के समान ही समझनी चाहिए। पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं मणुस्साणं च जहा णेरइयाणं, णवरं फासिदिए छव्विह संठाणसंठिए पण्णत्ते। तंजहा - समचउरंसे, णिग्गोह परिमंडले, साई, वामणे, खुजे, हुंडे। वाणमंतर जोइसिय वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं॥४३६॥ ... भावार्थ - पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों और मनुष्यों की इन्द्रियों की संस्थानादि सम्बन्धी वक्तव्यता नैरयिकों की इन्द्रिय-संस्थानादि सम्बन्धी वक्तव्यता के समान समझनी चाहिए। विशेषता यह है कि उनकी स्पर्शनेन्द्रिय छह प्रकार के संस्थानों वाली होती है। वे छह संस्थान इस प्रकार हैं - १. समचतुरस्र २. न्यग्रोध परि (ण्डल ३. सादि ४. वामन ५. कुब्जक और ६. हुण्डक। वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों की इन्द्रिय-संस्थानादि सम्बन्धी वक्तव्यता असुरकुमारों की इन्द्रियसंस्थानादि सम्बन्धी वक्तव्यता के समान कहनी चाहिये। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य तथा वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों की इन्द्रियों के संस्थान, बाहल्य पृथुत्व, प्रदेश अवगाहना एवं अल्पबहुत्व आदि की प्ररूपणा की गयी है। ७-८. स्पृष्ट-प्रविष्ट द्वार पुट्ठाइं भंते! सद्दाइं सुणेइ, अपुट्ठाइं सद्दाइं सुणेइ? गोयमा! पुट्ठाइं सदाइं सुणेइ, णो अपुट्ठाइं सहाइं सुणेइ। भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट शब्दों को सुनती है या अस्पृष्टं शब्दों को सुनती है ? उत्तर - हे गौतम! श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट शब्दों को सुनती है, अस्पष्ट शानों को नहीं सुनती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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