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________________ 396 प्रज्ञापना सूत्र गुणी हैं। उससे वैक्रिय शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यात गुणी हैं। तैजस और कार्मण दोनों शरीरों की उत्कृष्ट अवगाहना समान है, परन्तु वह वैक्रिय शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना से असंख्यात गुणी हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पांचों शरीरों की अवगाहनाओं का अल्पबहुत्व कहा गया है जो इस प्रकार है - औदारिक शरीर की जघन्य अवगाहना सबसे कम है क्योंकि वह अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उससे तैजस और कार्मण दोनों की जघन्य अवगाहना परस्पर तुल्य और औदारिक की जघन्य अवगाहना से विशेषाधिक है क्योंकि मारणान्तिक समुद्घात से युक्त प्राणी के पूर्व के शरीर से जो बाहर निकला हुआ तैजस शरीर है उसकी लंबाई मोटाई और चौड़ाई से अवगाहना का विचार किया जाता है। ऐसी स्थिति में जिस प्रदेश में वे जीव उत्पन्न होंगे वह प्रदेश औदारिक शरीर की अवगाहना जितने अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण व्याप्त होता है और उसके बीच का भाग जो बहुत थोड़ा है वह भी तैजस शरीर से व्याप्त होता है अत: औदारिक शरीर की जघन्य अवगाहना से तैजस और कार्मण दोनों शरीर की जघन्य अवगाहना विशेषाधिक होती है। उनसे भी वैक्रिय शरीर की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी हैं क्योंकि अंगुल के असंख्यातवें भाग के असंख्यात भेद हैं। उनसे आहारक शरीर की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुणी हैं क्योंकि वह कुछ कम एक हाथ प्रमाण है। उत्कृष्ट अवगाहना के विचार में सबसे थोड़ी आहारक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना है क्योंकि वह एक हाथ प्रमाण है उससे भी औदारिक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यात गुणी हैं क्योंकि वह कुछ अधिक हजार योजन प्रमाण है। उससे वैक्रिय शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी हैं क्योंकि वह कुछ अधिक लाख योजन प्रमाण है। उससे तैजस और कार्मण दोनों शरीरों की उत्कृष्ट अवगाहना परस्पर तुल्य और वैक्रिय शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना से असंख्यातगुणी होती है क्योंकि वह चौदह राजू लोक प्रमाण है। ___जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना के विचार में आहारक शरीर की जघन्य अवगाहना की अपेक्षा उसकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक समझनी चाहिये क्योंकि वे भी अंश से अधिक है। शेष सभी स्पष्ट है और पूर्वोक्त युक्ति अनुसार है। ॥पण्णवणाए भगवईए एगवीसइमं ओगाहणासंठाणपयं समत्तं॥ ॥प्रज्ञापना भगवती सूत्र का इक्कीसवां अवगाहना संस्थान पद समाप्त॥ ॥भाग-३ समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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