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________________ बीसवां अन्तक्रिया पद - भव्यद्रव्य देव उपपात प्ररूपणा द्वार ३२५ ही उत्पन्न होते हैं। किन्तु यदि देवलोक में उत्पन्न हो तो कौन कहाँ तक उत्पन्न हो सकता है-इसी बात पर यहाँ विचार किया गया है। ये दूसरी गतियों में भी उत्पन्न होते हैं। किन्तु उसका यहाँ विचार नहीं किया गया है। उपरोक्त चौदह बोलों में से अविराधित संयमी, विराधित संयमी, अविराधित संयमासंयमी और विराधित संयमासंयमी ये चार बोल वाले तो मरकर देवगति में ही जाते हैं अर्थात् पांचवें गुणस्थान वाले एवं छठे आदि गुणस्थान वाले जीव मरकर देवगति में ही जाते हैं। शंका - यहाँ विराधित संयम वालों की उत्पत्ति जघन्य भवनवासी और उत्कृष्ट सौधर्म देवलोक तक की बतलाई गई है, किन्तु सुकुमालिका के भव में द्रौपदी संयम की विराधिका होते हुए भी ईशान देवलोक में गई थी। फिर उपर्युक्त कथन कैसे संगत होगा? समाधान - सुकुमालिका ने मूलगुण की विराधना नहीं की थी, किन्तु उत्तरगुण की विराधना की थी अर्थात् उसने बकुशत्व का कार्य किया था। बारबार हाथ मुँह धोते रहने से साधु का चारित्र बकुश (चितकबरा) हो जाता है। सुकुमालिका का यही हुआ था। यह उत्तरगुण की विराधना हुई, मूलगुण की नहीं। यहाँ जिन विराधक संयमियों की उत्पत्ति उत्कृष्ट सौधर्मकल्प में बताई गई है, वे मूलगुण के विराधक हैं, ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि उत्तर गुण प्रतिसेवी बकुशादि की उत्पत्ति तो अच्युत कल्प तक भी हो सकती है। ___ शंका - यहाँ असंज्ञी जीवों की उत्पत्ति जघन्य भवनवासी. और उत्कृष्ट वाणव्यन्तर बतलाई गई है। तो क्या भवनवासी देवों से वाणव्यंतर बड़े हैं ? इसके सिवाय भवनवासी देवों के इन्द्र चमर और बलि की ऋद्धि बड़ी कही गई हैं। आयुष्य भी इनका सागरोपम से अधिक है, जबकि वाणव्यंतरों का आयुष्य पल्योपम प्रमाण ही है। फिर वाणव्यन्तर भवनवासियों से बड़े कैसे-माने जा सकते हैं? ... समाधान - कई वाणव्यन्तर कई भवनवासियों से भी उत्कृष्ट ऋद्धि वाले होते हैं और कई भवनवासी वाणव्यन्तरों की अपेक्षा कम ऋद्धि वाले हैं। अतः यहाँ जो कथन किया गया है, उसमें किसी प्रकार का. दोष नहीं है, कई वाणव्यन्तर कई भवनवासियों से अधिक ऋद्धिशाली होते हैं और कई भवनवासी वाणव्यन्तरों से अल्प ऋद्धि वाले होते हैं। यह बात शास्त्र के इसी कथन से सिद्ध है। समान स्थिति वाले भवनवासी और वाणव्यन्तरों में वाणव्यन्तर श्रेष्ठ गिने जाते हैं। 'यहाँ पर उपरोक्त चौदह बोलों में से किल्विषयों का देवगति में जघन्य उपपात सौधर्मकल्प का बताया है किन्तु भगवती सूत्र शतक १ उद्देशक २ में इन्ही चौदह बोलों के वर्णन में किल्विषियों का जघन्य उपपात भवनवासी देवों में बताया गया है। भगवती सूत्र अङ्ग सूत्र होने से उसका पाठ विशेष प्रामाणिक लगता है। प्रज्ञापना सूत्र में शायद लिपिप्रमाद संभव है अथवा यहाँ पर मात्र वैमानिक जाति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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