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________________ अठारहवाँ कायस्थिति पद - दर्शन द्वार २७५ अचक्खुदंसणी णं भंते! अचक्खुदंसणित्ति कालओ०? गोयमा! अचक्खुदंसणी दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! अचक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी रूप में कितने काल तक रहता है ? उत्तर - हे गौतम! अचक्षुदर्शनी दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - १. अनादि अपर्यवसित और २. अनादि-सपर्यवसित। विवेचन - अचक्षुदर्शनी दो प्रकार के कहे गये हैं - १. अनादि अनन्त - जो कभी भी मोक्ष प्राप्ति नहीं करेंगे और २. अनादि सान्त - जो मोक्ष को प्राप्त करेंगे। ओहिदंसणी णं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं दो छावट्ठीओ सागरोवमाणं साइरेगाओ। भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! अवधिदर्शनी, अवधिदर्शनी रूप में कितने काल तक रहता है ? . उत्तर - हे गौतम! अवधिदर्शनी, अवधिदर्शनी रूप में जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो छियासठ (एक सौ बत्तीस) सागरोपम तक अवधिदर्शनी पर्याय में रहता है। विवेचन - तिर्यंच पंचेन्द्रिय या मनुष्य तथाप्रकार के अध्यवसाय से अवधिदर्शन उत्पन्न करके तदनन्तर समय में काल करके तिर्यंच पंचेन्द्रिय या मनुष्य में उत्पन्न होता है तब अवधिदर्शन की कायस्थिति एक समय की होती है। उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक दो ६६ सागरोपम की होती है। ___अवधिदर्शन की उत्कृष्ट कायस्थिति दो छासठ (एक सौ बत्तीस) सागरोपम की बताई है। इसके विषय में प्रज्ञापना सूत्र के टीकाकार व टब्बाकार इस प्रकार कहते हैं -पहले दो भव सातवीं नरक के बीच में तिथंच पंचेन्द्रिय का भव करा कर फिर मनुष्य के भव करा कर १२ वें देवलोक के तीन भव एवं बीच बीच में मनुष्य का भव कराकर १३२ सागरोपम मानते हैं तथा वे कहते हैं कि विग्रहगति वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों में ही विभंग ज्ञान लाने का निषेध है। अविग्रह वालों में नहीं। परन्तु पूज्य गुरुदेव श्रमण श्रेष्ठ पंडित रत्न श्री समर्थमल जी म. सा. की इस सम्बन्ध में धारणा इस प्रकार हैविभंगज्ञान वाला मनुष्य १२ वें देवलोक या पहले ग्रैवेयक में विभंगज्ञान लेकर आवे और वहाँ से अवधिज्ञान लेकर मनुष्य में जावे। फिर इसी तरह विभंग लेकर आवे और अवधिज्ञान लेकर जावे। ऐसे तीन भव १२ वें देवलोक के या पहले ग्रैवेयक के करने से ६६ सागरोपम की स्थिति होती है तथा बीच-बीच के मनुष्य के भवों की स्थिति मिलाने से 'साधिक' हो जाती है। फिर विजयादि अनुत्तर विमानों में अवधिज्ञान युक्त दो बार आने से छासठ सागरोपम एवं बीच के मनुष्य भव की स्थिति मिलाने से 'साधिक छासठ सागरोपम' हो जाती है। इस प्रकार कुल मिलाकर दशभवों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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