SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६८ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000 प्रज्ञापना सूत्र और परभव का प्रथम अंतर्मुहूर्त अधिक है इन दोनों अन्तर्मुहूर्त्त का समावेश पल्योपम के असंख्यातवें भाग में हो जाता है। अतः उसकी अलग से विवक्षा नहीं की गयी है । काउलेस्से णं पुच्छा ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमाइं पलिओवमा संखिज्जइ भाग मब्भहियाइं । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! कापोतलेश्या वाला जीव कितने काल तक कापोतलेश्या वाला. रहता है ? - ÖHÖN ÖLÜ ÖNÖKÖTÖÖHÖN Ö उत्तर हे गौतम! कापोतलेश्या वाला जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट पल्योनम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम तक कापोतलेश्या वाला लगातार रहता है। विवेचन - कापोत लेश्या की उत्कृष्ट कायस्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम तीसरी नरक पृथ्वी की अपेक्षा समझनी चाहिये क्योंकि तीसरी नरक पृथ्वी के प्रथम प्रस्तट में कापोत लेश्या होती है और उसमें इतनी ही उत्कृष्ट स्थिति संभव है। तेउलेस्से णं पुच्छा ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं पनिओवमा संखिज्जइ भाग मब्भहियाई । भावार्थ- प्रश्न- हे भगवन् ! तेजो लेश्या वाला जीव कितने काल तक तेजो लेश्या वाला रहता है ? उत्तर - हे गौतम! तेजोलेश्या वाला जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तक और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागरोपम तक तेजो लेश्यायुक्त रहता है। विवेचन - तेजो लेशी की उत्कृष्ट कार्यस्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागरोपम की कही है यह ईशान देवलोक की देवी की अपेक्षा समझनी चाहिये क्योंकि उनमें तेजो लेश्या होती है और उनकी उत्कृष्ट स्थिति भी इतनी ही है। पम्हलेस्से णं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं अंतीमुहुत्त मब्भहियाई । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पद्म लेश्या वाला जीव कितने काल तक पद्म लेश्या वाला रहता है। उत्तर - हे गौतम! पद्म लेश्या वाला जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त अधिक दस सागरोपम तक पद्म लेश्या युक्त रहता है। Jain Education International विवेचन - पद्म लेशी की उत्कृष्ट कार्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागरोपम की कही है यह ब्रह्मलोक कल्प के देवों की अपेक्षा समझनी चाहिये क्योंकि उनमें पद्म लेश्या होती है और उनकी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy