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________________ २३८ प्रज्ञापना सूत्र हैं इसलिए उनके काय स्थिति और भव स्थिति दोनों होती है। देव और नैरयिक मृत्यु के बाद देव औरं नैरयिक नहीं बनते अतः उनकी भवस्थिति होती है, कायस्थिति नहीं होती । १. जीव द्वार जीवे णं भंते! जीवेत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! सव्वद्धं ॥ दारं १ ॥ ५३२ ॥ कठिन शब्दार्थ - सव्वद्धं - सर्वदा - सर्वकाल । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जीव कितने काल तक जीव (जीवपर्याय में) रहता है ? उत्तर - हे गौतम! जीव सदा काल जीव ही रहता है | ॥ प्रथम द्वार ॥ १ ॥ विवेचन - जो चेतना युक्त हो तथा द्रव्य प्राण और भाव प्राण वाला हो, उसे 'जीव' कहते हैं । द्रव्य प्राण दस हैं। वे इस प्रकार हैं 1 पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वास निःश्वास मध्यान्यदायुः । प्राणाः दशैते भगवद्भिरुक्ताः, तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥ १. स्पर्शनेन्द्रिय बल प्राण २. रसनेन्द्रिय बल प्राण ३. घ्राणेन्द्रिय बल प्राण ४. चक्षुरिन्द्रिय बल प्राण ५. श्रोत्रेन्द्रिय बल प्राण ६. काय बल प्राण ७. वचन बल प्राण ८. मन बल प्राण ९. श्वासोच्छ्वास बल प्राण १०. आयुष्य बल प्राण । भाव प्राण चार हैं - अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्तराय (अनन्त शक्ति - अनन्त आत्म सामर्थ्य) और अव्याबाध सुख। सिद्ध भगवंतों में ये चार भाव प्राण होते हैं । संसारी जीव द्रव्य प्राणों के सद्भाव में सदैव जीवित रहते हैं जबकि सिद्ध जीव द्रव्य प्राणों से रहित होने पर भी अनन्त ज्ञानादि रूप भाव प्राणों के सद्भाव से सदैव जीवित रहते हैं अतएव जीव में जीवन पर्याय सर्वकाल भावी है। आगम में सिद्धों के भाव प्राणों का कहीं पर भी उल्लेख नहीं हुआ है, प्राचीन ग्रन्थों में सिद्धों के चार भाव प्राणों का वर्णन मिलता है। अपेक्षा विशेष से इस प्रकार से कहना अनुचित नहीं लगता है। 44 44 आगम में " अनन्त सुख" के स्थान पर " अव्याबाध सुख" इन शब्दों का ही अनेकों स्थलों पर प्रयोग हुआ है। 'अनन्त शक्ति' या 'अनन्त आत्म सामर्थ्य' के स्थान पर 'अनन्तराय, क्षीणान्तराय, निरन्तराय' इन शब्दों का प्रयोग हुआ है । अतः ग्रन्थोक्त चार भाव प्राणों का नाम बताते हुए इन दो आगमोक्त नामों को बोलना उचित रहता है। २. गति द्वार इणं भंते! रइए त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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