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________________ ११६ प्रज्ञापना सूत्र बेइन्द्रिय जीवों में उपपात का विरह काल अन्तर्मुहूर्त जितना है किन्तु उपपात के विरहकाल का अन्तर्मुहूर्त छोटा होता है और औदारिक मिश्र का अंतर्मुहूर्त उससे बड़ा होता है अत: उनमें औदारिक मिश्र शरीर काय प्रयोगी भी सदैव होते हैं। कार्मण शरीर काय प्रयोगवाला जीव तो कदाचित् एक भी नहीं होता है क्योंकि उनका उपपात विरहकाल अन्तर्मुहूर्त का होता है। जब होते हैं तब जघन्य से एक, दो उत्कृष्ट असंख्यात होते हैं। इसलिये जब एक भी कार्मण शरीर काय प्रयोगी नहीं होता है तब प्रथम भंग बनता है। जब एक कार्मण शरीरी होता है तब द्वितीय भंग बनता है और जब बहुत से कार्मण शरीरी होते हैं तब तीसरा भंग पाया जाता है। इसी प्रकार तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय के विषय में भी समझ लेना चाहिए। पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया जहा जेरइया, णवरं ओरालियसरीर कायप्पओगी वि, ओरालियमीसा सरीर कायप्पओगी वि, अहवेगे य कम्मासरीर कायप्पओगी य, अहवेगे य कम्मासरीर कायप्पओगिणो य॥४६३॥ भावार्थ - पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों की प्रयोग सम्बन्धी वक्तव्यता नैरयिकों की प्रयोगवक्तव्यता के समान कहना चाहिए। विशेषता यह है कि एक पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक औदारिक शरीर कायप्रयोगी भी होता है तथा औदारिक मिश्र शरीर काय-प्रयोगी भी होता है। १. अथवा कोई एक पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक कार्मण शरीर काय प्रयोगी भी होता है, २. अथवा बहुत से पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीव कार्मण शरीर काय-प्रयोगी भी होते हैं। विवेचन - पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का प्रयोग विषयक कथन नैरयिकों के समान जानना चाहिये किन्तु इतनी विशेषता है कि ये औदारिक और औदारिक मिश्र शरीर काय प्रयोग वाले भी होते हैं। कार्मण शरीर काय प्रयोग वाला कभी कभी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में एक भी नहीं पाया जाता क्योंकि उनके उपपात का विरह काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा गया है। जब कार्मण शरीर काय प्रयोग वाला एक भी नहीं होता तब प्रथम भंग होता है। जब कार्मण शरीर काय प्रयोगी एक होता है तब दूसरा भंग और जब कार्मण शरीर काय प्रयोगी बहुत होते हैं तब तीसरा भंग होता है। मणूसा णं भंते! किं सच्चमणप्पओगी जाव किं कम्मासरीर कायप्पओगी? गोयमा! मणूसा सव्वे वि ताव होजा सच्चमणप्पओगी वि जाव ओरालिय सरीर कायप्पओगी वि, वेउव्विय सरीर कायप्पओगी वि, वेउव्वियमीस सरीर कायप्पओगी वि, अहवेगे य ओरालियमीस सरीर कायप्पओगी य १, अहवेगे य ओरालियमीस सरीर कायप्पओगिणो य २, अहवेगे य आहारग सरीर कायप्पओगी य ३, अहवेगे य आहारग सरीर कायप्पओगिणो य ४, अहवेगे य आहारग मीससरीर कायप्पओगी य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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