SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - पुद्गल द्वार ३८५ ************************************************************************************ संख्यात समय की स्थिति वाले द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा हैं, उनसे असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं। प्रदेश की अपेक्षा - सबसे थोड़े एक समय की स्थिति वाले पुद्गल अप्रदेश की अपेक्षा है, उनसे संख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा हैं, उनसे असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा हैं। द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा सबसे थोड़े एक समय की स्थिति वाले पुद्गल द्रव्य एवं अप्रदेश की अपेक्षा है, उनसे संख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा हैं और प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा हैं, उनसे असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं और प्रदेश की अपेक्षा भी असंख्यात गुणा हैं।। विवेचन - यहाँ पर काल (स्थिति) की मुख्यता से पुद्गलों की अल्पबहुत्व कही गई है। अतः एक समय की स्थिति वाले जितने पुद्गल हैं उतने उनके द्रव्य और प्रदेश गिने जाते हैं। दो समय की स्थिति वाले पुद्गलों में प्रत्येक परमाणु और स्कन्धों के दो-दो प्रदेश गिने गये हैं, इसी तरह तीन समय की स्थिति वाले पुद्गलों में यावत् असंख्यात् समय के स्थिति वाले पुद्गलों में भी समझ लेना चाहिये। क्षेत्र की अल्प बहत्व में - अनन्त प्रदेशावगाढ पदगल नहीं होते हैं। क्योंकि पदगल तो लोक में ही होते हैं। संपूर्ण लोक के आकाश प्रदेश भी असंख्याता ही है। इसी प्रकार काल की अल्प बहुत्व में - अनन्त समय की स्थिति के पुद्गल नहीं होते हैं क्योंकि किसी भी पुद्गलों की असंख्याता काल (असंख्याता उत्सर्पिणी अवसर्पिणी) से अधिक स्थिति नहीं होती है इसके बाद तोवे संयुक्त (मिलना) और वियुक्त (अलग होना) होते ही हैं। अतः यहाँ क्षेत्र और काल की अल्प बहुत्व में उपर्युक्त एक-एक बोल नहीं बताया गया है। एएसिणं भंते! एगगुणकालगाणं संखिजगुणकालगाणं असंखिज्जगुणकालगाणं अणंतगुणकालगाणं च पुग्गलाणं दव्वट्ठयाए पएसट्ठयाए दव्वट्ठपएसट्टयाए य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! जहा पुग्गला तहा भाणियव्वा। एवं सेसावि वण्णा गंधा रसा फासा भाणियव्वा। फासाणं कक्खड-मउय-गरुय-लहुयाणं जहा एगपएसोगाढाणं भणियं तहा भाणियव्वं । अवसेसा फासा जहा वण्णा तहा भाणियव्वा ॥ २६ दारं॥ २१६॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन एक गुण काले, संख्यात गुण काले, असंख्यात गुण काले और अनन्त गुण काले पुद्गलों में द्रव्य की अपेक्षा, प्रदेश की अपेक्षा तथा द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार सामान्य पुद्गलों के विषय में कहा है उसी प्रकार यहाँ भी कहना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy