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________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - क्षेत्र द्वार ३५३ ********************************************* ****** ****** *** * *** २. तिर्यक्लोक (मध्यलोक) और ३. अधोलोक। तीन लोक का यह विभाग मेरु पर्वत के ठीक बीचोबीच में रहे हुए रुचक प्रदेशों की अपेक्षा है। मेरु पर्वत एक हजार योजन भूमि में है और ९९ हजार योजन भूमि के ऊपर है भूमि पर १०,००० योजन का चौड़ा है। चारों तरफ से ५०००-५००० योजन तक अन्दर जाने पर उसका मध्य भाग आता है उस मध्य भाग भूमि के समतल के मेरु प्रदेश में आठ रुचक प्रदेश रहे हुए हैं। इन रुचक प्रदेशों के ९०० योजन नीचे अधोलोक है और रुचक प्रदेशों के ९०० योजन ऊपर ऊर्ध्वलोक है। ऊर्ध्वलोक और अधोलोक के बीच अठारह सौ योजन प्रमाण तिर्यक् लोक है। ऊर्ध्वलोक का प्रमाण सात रन्जु से कुछ कम है और अधोलोक का प्रमाण सात रज्जु से कुछ अधिक है। रुचक प्रदेशों से ९०० योजन ऊपर तिर्यक लोक का अन्तिम एक आकाश प्रदेश का प्रतर तिर्यक्लोक प्रतर है और इसके ऊपर का ऊर्ध्वलोक के नीचे ही नीचे का एक आकाश प्रदेश का प्रतर ऊर्ध्वलोक प्रतर है। इन दोनों प्रतरों का सम्मिलित नाम ऊर्ध्वलोक तिर्यकलोक है। प्रश्न - अधोलोक-तिर्यक्लोक किसे कहते हैं ? उत्तर - अधोलोक के ऊपर ही ऊपर का एक आकाश प्रदेश का प्रतर अधोलोक प्रतर है और तिर्यक्लोक के नीचे ही नीचे का एक आकाश प्रदेश का प्रतर तिर्यक्लोक प्रतर है। इन दोनों प्रतरों का सम्मिलित नाम अधोलोक-तिर्यक्लोक है। ____ अल्प बहुत्व - सबसे थोड़े जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं क्योंकि तिर्यक्लोक से ऊर्ध्वलोक में और ऊर्ध्वलोक से तिर्यक्लोक में उत्पन्न होने वाले जीव तधा इन दोनों प्रतरों में रहने वाले जीव ही यहाँ ग्रहण किये गये हैं। ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में उत्पन्न होने वाले जीव यद्यपि इन दोनों प्रतरों का भी स्पर्श करते हैं पर वे यहाँ ग्रहण नहीं किये गये हैं इसलिये सबसे थोड़े हैं। उनसे अधोलोकतिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं क्योंकि अधोलोक से तिर्यक्लोक में और तिर्यक्लोक से अधोलोक में उत्पन्न होने वाले जीव अधोलोक प्रतर और तिर्यक्लोक प्रतर दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं और इन दोनों प्रतरों में रहने वाले जीव यहाँ ग्रहण किये गये हैं। अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होने वाले जीव यद्यपि इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं पर उन्हें यहाँ नहीं गिना गया है। क्योंकि ऊर्ध्वलोक से अधोलोक का क्षेत्र अधिक है इसलिए ऊर्ध्वलोक की अपेक्षा अधोलोक से तिर्यक्लोक में अधिक जीव उत्पन्न होते हैं अतः अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक कहे गये हैं। उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि अधोलोक-तिर्यक्लोक क्षेत्र से तिर्यक्लोक का क्षेत्र असंख्यात गुणा अधिक होने से तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा कहे गये हैं। उनसे त्रिलोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि विग्रह गति में मारणांतिक समुद्घात कर ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में और अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होने वाले जीव ही यहाँ ग्रहण किये गये हैं जो तिर्यक्लोक की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं। उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा जीव हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक में उपपात क्षेत्र अधिक है। उनसे अधोलोक में जीव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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