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________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - काय द्वार २९९ । **************************************** ***************** *** ***** **** * **** उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक त्रसकायिक हैं उनसे अपर्याप्तक त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सकायिक आदि जीवों का पर्याप्तक अपर्याप्तक प्रत्येक का अल्प बहुत्व कहा गया है। __ एएसि णं भंते! सकाइयाणं पुढविकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणं तसकाइयाणं च पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा तसकाइया पजत्तगा, तसकाइया अपजत्तगा असंखिज . गुणा, तेउकाइया अपजत्तगा असंखिज गुणा, पुढविकाइया अपजत्तगा विसेसाहिया, आउकाइया अपजत्तगा विसेसाहिया, वाउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, तेउकाइया . पज्जत्तगा संखिज्ज गुणा, पुढविकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, आउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, वाउकाइया पजत्तगा विसेसाहिया, वणस्सइकाइया अपजत्तगा अणंत गुणा, सकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया वणस्सइकाइया पजत्तगा संखिज गुणा, सकाइया पजत्तगा विसेसाहिया, सकाइया विसेसाहिया॥१५६॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक अपर्याप्तक सकायिक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक त्रसकायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं उनसे अपर्याप्तक अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक तेजस्कायिक संख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक सकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक वनस्पतिकायिक संख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक सकायिक विशेषाधिक हैं और उनसे सकायिक विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पर्याप्तक अपर्याप्तक सकायिक आदि जीवों का शामिल अल्प बहुत्व कहा गया है। सबसे थोड़े पर्याप्तक त्रसकायिक हैं उनसे अपर्याप्तक त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं। क्योंकि पर्याप्तक बेइन्द्रिय आदि अपर्याप्तक बेइन्द्रिय आदि असंख्यात गुणा हैं उनसे अपर्याप्तक तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं उनसे अपर्याप्तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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