SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४४ प्रज्ञापना सूत्र तत्थ णं आणयपाणयदेवाणं चत्तारि विमाणावाससया भवतीति मक्खायं जाव पडिरूवा । वडिंसगा जहा सोहम्मे कप्पे । णवरं मज्झे इत्थ पाणयवडिंसए । ते णं वडिंसगा सव्व रयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । एत्थ णं आणय पाणय देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । तिसु वि लोगस्स असंखिज्जइभागे । तत्थ णं बहवे आणय पाणय देवा परिवसंति महिड्डिया जाव पभासेमाणा । ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावास सयाणं जाव विहरंति । पाणए इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ जहा सणकुमारे। णवरं चउण्हं विमाणावास सयाणं, वीसाए सामाणिय साहस्सीणं, असीईए आयरक्खदेव साहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं जाव विहरइ ॥ १३० ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक आनत और प्राणत देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! आनत और प्राणत देव कहाँ रहते हैं ? उत्तर - हे गौतम! सहस्रार कल्प के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में यावत् ऊपर जाने पर आनत और प्राणत नामक कल्प कहे गये हैं। जो पूर्व पश्चिम में लम्बे और उत्तर दक्षिण में चौड़े अर्द्ध चन्द्रमा के आकार के ज्योतिमाला और दीप्तिराशि की प्रभा के समान है, शेष सारा वर्णन सनत्कुमार कल्प की तरह यावत् प्रतिरूप है तक समझना चाहिये । ************** वहाँ आनत और प्राणत देवों के चार सौ विमान है ऐसा कहा गया है यावत् प्रतिरूप हैं। अवतंसक सौधर्म कल्प के अवतंसकों की तरह जानना चाहिये । विशेषता यह है कि इनके मध्य भाग में प्राणतावतंसक है वह सभी अवतंसकों में सर्व रत्नमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप । यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक आनत प्राणत देवों के स्थान कहे गये हैं । जो उपपात समुद्घात और स्वस्थान इन तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। Jain Education International वहाँ बहुत से आनत - प्राणत देव निवास करते हैं जो महान् ऋद्धि वाले यावत् दशों दिशाओं को प्रभासित- प्रकाशित करते हुए अपने-अपने सैकड़ों विमानों का आधिपत्य करते हुए यावत् विचरण करते हैं । यहाँ प्राणत नामक देवों का इन्द्र देवों का राजा निवास करता है इत्यादि सारा वर्णन सनत्कुमारेन्द्र की तरह कह देना चाहिये विशेषता यह है कि यह चार सौ विमानों का, बीस हजार सामानिक देवों का तथा अस्सीहजार आत्मरक्षक देवों का और अन्य बहुत से देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है। कहि णं भंते! आरणच्चुयाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! आरणच्या देवा परिवसंति ? For Personal & Private Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy